शेखर गुप्ता।
मैं अक्सर उबाऊ राजनीति की बात करते हुए क्रिकेट के दृष्टांत और मुहावरों का इस्तेमाल करता हूं। ऐसे में अपनी न्यायपालिका के बारे में बात करते समय फिल्म संगीत का जिक्र करने की छूट ले सकता हूं। खासतौर से जब मैं गीतकार आनंद बख्शी की पुण्यतिथि के दिन लिख रहा हूं। उस जमाने को याद करते हुए जब मैं न्यायपालिका के बारे में सोचता हूं तो मुझे आनंद बख्शी द्वारा ‘दो भाई’ फिल्म के लिए लिखी पंक्ति याद आती है। 1969 में आई इस फिल्म में अशोक कुमार, जितेंद्र और माला सिन्हा ने अभिनय किया था। फिल्म में अशोक कुमार जज बने थे और जितेंद्र पुलिस वाले की भूमिका में थे।फिल्म में दिखाया गया है कि जज के रूप में कैसे अशोक कुमार इस दुविधा में थे कि अपने भाई को सजा दें या माफ करें। इसी दुविधा पर आनंद बख्शी ने एक गीत लिखा था जिसे मोहम्मद रफी ने गाया। गीत के बोल थे- ‘इस दुनिया में ओ दुनियावालो, बड़ा मुश्किल है इंसाफ करना, बड़ा आसान है देना सजाएं, बड़ा मुश्किल है पर माफ करना’।
बतौर संपादक हमारी जिंदगी में यही तर्क लागू होता है कि किसी भी खबर को प्रकाशित करना हमारे लिए बड़ा आसान है बजाय इसके कि शर्मिंदा हुआ जाए और बाद में सफाई दी जाए। एक लापरवाह संपादक किसी अहम खबर को सिर्फ इसलिए छोड़ देता है कि उसे वह थोड़ा अविश्वसनीय लगती है। इसी तरह की 1998 की सर्दियों की एक खबर का जिक्र मैं यहां कर रहा हूं जो सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश के बारे में थी। मैं 20 साल बाद कुछ लोगों के भरोसे को तोड़ रहा हूं और कुछ बुद्धिमान व सम्मानित लोगों के नामों को उजागर कर रहा हूं। उम्मीद है वे मुझे माफ कर देंगे क्योंकि वे अच्छी तरह से जानते हैं कि ऐसा मैं क्यों कर रहा हूं।
हमारे बेहतरीन लीगल एडिटर ने जस्टिस एएस आनंद की पिछली जिंदगी के बारे में छानबीन की थी। उन्होंने तब सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का पदभार संभाला ही था। एक न्यायाधीश के रूप में उनकी जिंदगी दागदार थी। उन्होंने न सिर्फ गलत तरीकों का इस्तेमाल किया था बल्कि हितों की अनदेखी भी की थी। उनके द्वारा लिए गए उपहारों और अपनी जमीनों के बंटाईदारों से की गई हेराफेरी को लेकर हमने खबरों की एक शृंखला तैयार की थी जिसे कई बार संपादित किया गया। मुझे यह खबर ठीक लगी। फिर भी मैंने व्यक्तिगत तौर पर देश के दस बड़े वकीलों से इस पर राय ली कि इस खबर को प्रकाशित करें या न करें। इसे प्रकाशित करने के पक्ष में सिर्फ दो वकील थे जबकि आठ ने प्रकाशित न करने की सलाह दी। उनकी नजर में इसे प्रकाशित नहीं करने के कोई कानूनी या तथ्यात्मक कारण नहीं थे। फिर भी उनकी सलाह थी कि सावधान रहें, ऐसा करने से देश की सबसे बड़ी न्यायिक संस्था की निर्दोष छवि को नुकसान होगा। जबकि जिन दो वकीलों ने इसे प्रकाशित करने की राय दी थी उनका कहना था कि आगे बढ़ो। उनमें से एक का कहना था कि तथ्य तो तथ्य होते हैं और उस पर कोई और तर्क लागू नहीं होना चाहिए। दूसरे वकील तो उनसे भी ज्यादा उत्साही थे। उनसे जब मैंने पूछा कि खबर छप जाने के बाद जज क्या करेंगे, क्या वे अवमानना के मामले में मुझे जेल भेज देंगे? तो उनका कहना था कि वे ऐसा कुछ नहीं करेंगे बल्कि उनके पास सिवाय आत्महत्या करने के कोई चारा नहीं बचेगा।
उनकी इस राय ने मुझे हिलाकर रख दिया था। अनजाने में ही सही, भारतीय कानून के इस वरिष्ठ और प्रतिष्ठित सदस्य ने हमें वास्तविकता से अवगत करा दिया था और सोचने पर मजबूर कर दिया था। उनकी राय के बाद हमने दोबारा अपनी खबर की एक-एक पंक्ति की जांच की। उसमें एक ही चीज छूट रही थी। वह थी जस्टिस आनंद की प्रतिक्रिया। इस बारे में जब हमने उनके कार्यालय से संपर्क किया तो हर तरह की छानबीन करने के बाद उनके कार्यालय ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के सेवारत मुख्य न्यायाधीश मीडिया से बात नहीं कर सकते। हमें हमारा जवाब मिल गया था।
तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दो वरिष्ठ मंत्रियों सुषमा स्वराज और अरुण शौरी ने मुझसे संपर्क किया। मैं इन दोनों का बहुत सम्मान करता हूं। वे दोनों जस्टिस आनंद और उनके परिवार को लंबे समय से जानते थे। उन दोनों से जब मैंने उनके बारे में चर्चा की तो उन्होंने यही कहा कि यह विश्वास करना मुश्किल है कि उन्होंने कुछ गलत किया होगा। मैंने उनसे कहा कि हमारी खबर पूरी तरह से विश्वसनीय है और हमने इसके लिए काफी लंबे समय तक इंतजार किया है। अब इसे ज्यादा समय तक दबाए रखना संभव नहीं होगा। अगर हमारे तथ्य गलत हैं तो हम चाहेंगे कि जस्टिस आनंद हमें इस बारे में संतुष्ट करें। सुषमा स्वराज ने सलाह दी कि मैं जस्टिस आनंद को फोन करूं और उनसे इस बारे में बात करूं। मैंने उनकी सलाह मानते हुए जस्टिस आनंद को फोन किया तो वे सभी तथ्यों के साथ आॅफ दि रिकॉर्ड मुझसे बात करने को तैयार हो गए।
उनसे जो मुलाकात हुई वह संक्षेप में इस प्रकार है :- वे मुझसे गर्मजोशी और संदेह के मिश्रित भाव से मिले। उन पर उठाए गए एक-एक सवाल पर हमने घंटों तक चर्चा की। उनके पास चमड़े का एक ब्रीफकेस था जो दस्तावेजों से भरा था। उसमें टैक्स रिटर्न, धान बिक्री की रसीदें, उनके बच्चों की शादी के निमंत्रण पत्र, लेजर और कई तरह के हाथ से लिखे दस्तावेज थे जो उन्होंने कोर्ट और टैक्स अधिकारियों को दिए थे। हमारे सवालों पर उन्होंने मेरे सामने सारे तथ्य पेश किए। लौटकर मुझे ऐसा लग रहा था कि उन्होंने हर चीज का विश्वसनीय जवाब दिया है, एकदम सटीक। मगर एक चीज थी जो छूट रही थी। कई साल पहले उन्होंने अपने एक बंटाईदार को साढ़े छह बोरी धान की कीमत देने से शायद इन्कार कर दिया गया था। उस समय उसकी कीमत तीन-चार हजार रुपये से ज्यादा नहीं होगी। हो सकता है ऐसा हिसाब लिखने में हुई गड़बड़ी की वजह से हुआ हो। मैं बुझे मन से वापस आ गया। कोई भी अखबार देश के मुख्य न्यायाधीश को साढ़े छह बोरी धान के संदेहास्पद लेनेदेन के लिए जिम्मेदार नहीं ठहरा सकता।
उस मुलाकात के दौरान मैंने जो असहज और तकलीफदेह घंटे बिताए थे वह मेरे मनमस्तिष्क में कहीं छप सा गया था। मैं उम्मीद करता हूं कि इन सब वाकयों का जिक्र करने के लिए जस्टिस आनंद मुझे माफ कर देंगे। उन्होंने मुझसे कहा था, ‘सभी तथ्य आपके सामने हैं, मैं भारत का मुख्य न्यायाधीश हूं और आपके सभी सवालों का मैंने जवाब दे दिया है। क्या आपको लगता है कि आप अब भी आगे बढ़ेंगे और न सिर्फ मुझे बल्कि इस महान संस्था को नुकसान पहुंचाएंगे?’ जस्टिस आनंद, एक बार फिर मैं आपसे माफी चाहता हूं, 20 साल बाद आपके भरोसे को तोड़ने के लिए। क्योंकि उस दिन उनकी नम आंखें देखकर मेरे मन में डर और शर्मिंदगी दोनों थी।
वह खबर तो वहीं खत्म हो गई।जीवन में ऐसे मुश्किल फैसले मुझे बहुत कम ही करने पड़े। उसके बाद से मैंने कई बार सोचा कि क्या किसी नेता या नौकरशाह के खिलाफ अगर ऐसा ही मामला होता तो क्या हम इतनी ही उदारता और धैर्य दिखाते। मुख्य न्यायाधीश की प्रतिक्रिया जानने के पीछे सिर्फ यही वजह थी कि हम इस संस्था का आदर करते हैं और हमारी स्वतंत्रता जब भी खतरे में पड़ती है तो हम न्यायालय की ही शरण में जाते हैं। हमें कभी निराश नहीं होना पड़ा।
इडेलमैन-डब्ल्यूईएफ के सालाना सर्वे में कहा गया है कि दुनियाभर की सरकारों की विश्वसनीयता सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई है, ऐसे समय भी न्यायपालिका हमारी सबसे विश्वस्त संस्था है। फिल्म जॉली एलएलबी-2 में जज बने सौरभ शुक्ला ने भी अपने एक डायलॉग में कोर्ट की विश्वसनीयता का जिक्र किया है। फिल्म में उन्होंने कहा है, ‘हमारे न्यायालय के कमरे कितने भी गंदे हों, हर रोज सुबह मैं यहां काम करने आना नहीं चाहता और शाम छह बजने को इंतजार नहीं करना चाहता, ताकि छह बजे मैं घर जाऊं। इसके बावजूद जब दो व्यक्ति लड़ते हैं तो जानते हैं एक दूसरे से क्या कहते हैं? मैं तुम्हें कोर्ट में देख लूंगा। तमाम दिक्कतों के बावजूद उनका कोर्ट पर भरोसा है और उन्हें लगता है कि कोर्ट से उन्हें न्याय जरूर मिलेगा।’
इन्हीं सब कारणों से मैं मानता हूं कि हमारी शीर्ष न्यायपालिका को इस पर गंभीर आंतरिक बहस करनी चाहिए कि लोगों के भरोसे की इस पूंजी और सामाजिक अनुबंध को कैसे सुरक्षित रखा जाए और कैसे इसे और बढ़ाया जाए। क्या इस पूंजी के निवेश का सबसे बढ़िया तरीका यही है कि हर समय कार्यपालिका के काम में हस्तक्षेप किया जाए? न्यायिक स्वतंत्रता के लिए क्या वायु प्रदूषण से लेकर क्रिकेट की अनियमितता तक के मामलों की निगरानी के लिए रिटायर जजों की अधिकार प्राप्त कमेटी बनाना सही है? क्या ऐसे मसलों पर गुस्सा और झुंझलाहट दिखाने से न्यायिपालिका की प्रतिष्ठा बढ़ती है?
सच्चाई यह है कि (गैर संरकारी संगठन विधि सेंटर के किए अध्ययन से पता चला है कि) सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जजों में से 70 फीसदी सरकार के किसी न किसी ट्रिब्यूनल, संस्था या कोर्ट द्वारा नियुक्त कमेटी में होते हैं। इस पर कोई बहस नहीं होती। मैं इस बात के पक्ष में हूं कि जजों की सेवानिवृत्ति उम्र को बढ़ाकर 70 वर्ष कर दिया जाना चाहिए। हाई कोर्ट के जजों के लिए यह उम्र सीमा अभी 62 वर्ष और सुप्रीम कोर्ट के लिए 65 वर्ष है। अभी के हिसाब से रिटायरमेंट की यह उम्र सीमा कम है। रिटायर होने के बाद किसी मुख्य न्यायाधीश को राज्यपाल बना दिया जाना क्या सही है? ये सारे ऐसे संवेदनशील मुद्दे नहीं हैं जिन पर बहस नहीं की जा सकती।
(यह आलेख लेखक के स्थायी स्तंभ नेशनल इंटरेस्ट से है जो 1 अप्रैल, 2017 को छपा था)