अभिषेक रंजन सिंह
कोई भी आंदोलन बिना सामाजिक सहयोग के संभव नहीं है। किशन पटनायक की स्पष्ट राय थी कि जिस आंदोलन में आर्थिक और तीसरा पक्ष शामिल हो जाए उस आंदोलन की असमय मौत हो जाती है। पौने दो साल पहले दलित उत्पीड़न के खिलाफ एक ऐसा ही आंदोलन गिर सोमनाथ जिले की उना तहसील में देखने को मिला। जिसमें चंद पीड़ित परिवारों को छोड़ स्थानीय लोगों की कोई भूमिका नहीं थी। राष्ट्रीय मीडिया की मेहरबानी से भले ही ऐसे कृत्रिम आंदोलन सुर्खियां बटोर लें लेकिन उनका दीर्घकालिक असर नहीं होता। आज देश में भूमि अधिग्रहण और आदिवासियों के हितों के नाम पर भी कई जनांदोलन चल रहे हैं, लेकिन वे निष्प्रभावी हैं। शुरुआत में तो ऐसे आंदोलनों में स्थानीय लोगों की भूमिका होती है। बाद में इसमें एनजीओ शामिल हो जाते हैं। उना से अट्ठाइस किलोमीटर दूर मोटा समढियाला गांव में मृत गाय की खाल उतारने के सवाल पर कथित गौरक्षकों ने चार दलित युवकों की पिटाई की थी। इस घटना के बाद मायावती से लेकर राहुल गांधी और केजरीवाल भी यहां आए। कुछ इमदाद बांटीं और लंबी तकरीरें दीं। उना के बाद भी देश में दलित उत्पीड़न जैसी अनेक घटनाएं हुर्इं, लेकिन वहां जाने की जहमत किसी जिग्नेश मेवाणी सरीखे दलित नेता ने नहीं उठाई। देश की जनता ऐसे नेताओं के एकतरफा चरित्र को समझ चुकी है। उना की एक घटना को जिस तरीके से राजनीतिक रंग देने की कोशिश की गई। उससे सर्वाधिक नुकसान वैसे स्वत: स्फूर्त आंदोलन को हुआ जिसमें किसी एनजीओ की भूमिका नहीं है।
उना की घटना से जिग्नेश मेवाणी ने खुद को स्वयंभू दलित नेता घोषित कर दिया, लेकिन गुजरात के दलित उन्हें अपना नेता नहीं मानते। उना की घटना के बाद उन्होंने दलित अत्याचार लड़त समिति बनाई। उनका कहना था कि वे किसी पार्टी में शामिल नहीं होंगे। लेकिन उनकी कलई पिछले साल नई दिल्ली स्थित प्रेस क्लब आॅफ इंडिया में खुली जब पत्रकारों के बीच उन्होंने आम आदमी पार्टी से इस्तीफा देने की बात कही। पत्रकारों के लिए यह किसी आश्चर्य से कम नहीं था। खैर, जिग्नेश मेवाणी उना कांड की फसल गुजरात चुनाव में काटना चाहते हैं। अभी तक उन्होंने किसी पार्टी की सदस्यता या फिर नई पार्टी नहीं बनाई है। लेकिन पाटीदार नेता हार्दिक पटेल की तरह वह परोक्ष रूप से किसका साथ दे रहे हैं, यह उना समेत पूरे गुजरात में चर्चा का विषय है।
किसी भी सभ्य समाज में किसी भी प्रकार का उत्पीड़न निंदनीय है। लेकिन एक खास विचारधारा और विशेष राजनीतिक फायदे के लिए सुनियोजित तरीके से किसी घटना का इस्तेमाल होता है तो वह गलत है। मोटा समढियाला गांव पहुंचने पर हमारी मुलाकात बालू भाई और रमेश सरवैया से हुई। गौरक्षकों की हिंसा के ये दोनों भी शिकार हुए थे। बालू भाई और रमेश सरवैया उस घटना के बाद मृत गायों को उठाने का काम छोड़ चुके हैं। गांव में कुल पच्चीस घर दलितों के हैं। ज्यादातर लोग खाल उतारने का काम बंद कर चुके हैं। यहां रहने वाले दलितों के पास खेती योग्य जमीन नहीं है और वे दूसरों के खेतों में मजदूरी करते हैं। इस गांव में लेउवा पाटीदारों के करीब सौ घर हैं और इनके पास अच्छी खेती-बाड़ी है। दलितों के साथ इनका किसी प्रकार का कोई मतभेद नहीं है। करीब चार सौ साल पुराने इस गांव में कई जातियों के लोग साथ रहते हैं।
यहां आने से पहले मैं काठी दरबार (राजपूतों) के गांव सामतेर, नेसडा और नांद्रख होकर आया। दलितों और दरबारों के बीच हुई हिंसक झड़प के बाद इन गांवों में कई दिनों तक अशांति रही। इन गांवों ने सर्व सम्मति से दलितों का बहिष्कार कर दिया था। जो दलित पहले इनके खेतों और घरों में काम करते थे उन सबको मना कर दिया गया। उना की घटना के बाद सामतेर से करीब दो दर्जन लोगों को दलित उत्पीड़न और हिंसा फैलाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। इनमें ज्यादातर जेल से बाहर आ चुके हैं, लेकिन नौ आरोपी अभी भी बंद हैं।
बालू भाई के मुताबिक हालात अब काफी सामान्य हो चुके हैं। दरबारों ने दलितों के बहिष्कार का आदेश भी वापस ले लिया है। लेकिन सामतेर के कुछ दरबार युवक फोन पर धमकियां भी देते हैं। इससे सामान्य हो रहे दलितों के मन में खौफ पैदा हो जाता है। रमेश सरवैया के मुताबिक, ‘उना की घटना के बाद जिग्नेश मेवाणी मोटा समढियाला नहीं आए। राहुल गांधी चुनाव प्रचार के लिए गुजरात तो आते हैं,लेकिन यहां नहीं आते।’ गौरतलब है कि गिर सोमनाथ जिले में विधानसभा की कुल चार सीटें हैं सोमनाथ, तलाला, कोडीनार (अ.जा) और उना। तीन पर भाजपा का कब्जा है और एक सीट उना कांग्रेस के कब्जे में है। सौराष्ट्र-काठियावाड़ के इस इलाके में पहले चरण यानी नौ दिसंबर को मतदान है।