विजय शर्मा।
उपन्यासकार, यात्रा वृत्तांतकार सर विद्याधर सूरजप्रसाद नॉयपॉल (सर वी. एस. नॉयपॉल) ट्रिनिदाद के एक छोटे से स्थान छगुआनास में 17 अगस्त 1932 को पैदा हुए थे। उनकी मां का नाम द्रोपती कपिलदेव (‘कपिलदेव फेमिली’ नाम से उन्होंने एक किताब लिखी है) और पिता का नाम सी. प्रसाद नॉयपॉल था। उनके छोटे भाई शिव नॉयपॉल भी लेखक हैं। उनके पूर्वज 1880 में बंधुआ मजदूर बना कर गन्ने के खेतों में काम करने के लिए भारत से ट्रिनिदाद ले जाए गए थे। छगुआनास वेनीजुला का एक छोटा-सा टापू है। यह न तो सही मायनों में दक्षिण अमेरिका है और न ही कैरेबियन। ट्रिनिदाद न्यू वर्ल्ड प्लांटेशन कॉलोनी के रूप में विकसित हुआ था। यहां के बंधुआ मजदूर, हिन्दू-मुसलमान सब भारत के गंगा के मैदानी इलाके से आए थे। ये लोग शर्तनामे के तहत आए थे इसीलिए ‘एग्रीमेंट’ के बिगड़े रूप ‘गिरमिटिया’ के नाम से इन्हें जाना जाता है। बात थी कि ये पांच साल के बाद चाहें तो यहीं रह सकते हैं, उन्हें जमीन दे दी जाएगी। चाहें तो भारत लौट सकते हैं। गांधी जी और अन्य लोगों के विरोध के कारण यह करारनामा समाप्त हुआ। अत: बाद में आने वालों के लिए भारत लौटने का या जमीन मिलने का कोई जरिया न था। बचपन में नॉयपॉल ऐसे लोगों को देखते थे, लेकिन नहीं जानते थे कि ये लोग असहाय हैं। इनके साथ क्रूरता हो रही थी यह बात बच्चा नहीं जानता था।
नॉयपॉल शुरू से खोजी प्रवृत्ति के व्यक्ति रहे। उन्होंने कुछ भी लिखने से पहले सदैव खूब शोध किया। ट्रिनिदाद के इतिहास को जानने-समझने के लिए भी उन्होंने लाइब्रेरी और म्यूजियम की खाक छानी। वे घंटों-घंटों दस्तावेज पढ़ा करते। जब वे 34 वर्ष के थे तब उन्होंने अपने जन्म स्थान के विषय में विस्तार से खोज निकाला। उस समय वे इंग्लैंड में रह रहे थे। उनकी स्कूली पढ़ाई ट्रिनिदाद में हुई उसके बाद उन्होंने क्वीन्स रॉयल कॉलेज में दाखिला लिया, पढ़ने में तेज थे और मनपसंद कॉमनवेल्थ विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए स्कॉलरशिप पाई, 1950 में आॅक्सफोर्ड में दाखिला लिया। बचपन से वे भारत के विषय में काफी कुछ सुनते आए थे। उनके पिता उन्हें भारत की कहानियां सुनाया करते थे। इसके फलस्वरूप उनके मन में भारत की एक छवि निर्मित हो गई। लेकिन जब वे पहली बार भारत आए तो उनके मन वाली भारत की मोहक मूर्ति टूट गई। उन्हें यहां केवल जहालत, गरीबी, अशिक्षा और बीमारी नजर आई। उन्हें भारत में चारों ओर गंदगी दिखी। वे बहुत दु:खी और क्रोधित हुए। इस अनुभव ने 1964 में ‘एन एरिया आॅफ डार्कनेस’ किताब की शक्ल अख्तियार की। गुस्सा पालना अच्छा होता है, नॉयपॉल गुस्सा पालते हैं, तभी तो नोबेल पुरस्कार देते समय नोबेल समिति ने कहा, ‘वे गुस्से को सटीक जामा पहनाते हैं।’ और उनकी तुलना जोसेफ कॉनराड से की। बाद में भारत के प्रति उनका नजरिया बदला।
पढ़ाई तो हो गई लेकिन गरीबी, एकाकीपन और भविष्य की अनिश्चितता से वे काफी परेशान थे। इस परेशानी का उनके मन पर असर हुआ और वे अवसाद की अवस्था में चले गए यहां तक कि उनकी आवाज भी जाती रही। इस कठिन दौर में उनके पिता ने उन्हें सहारा दिया। दोनों के बीच खूब पत्राचार चला, जिसे बेटे ने बाद में ‘लेटर्स बिटवीन ए फादर एंड ए सन’ नाम से प्रकाशित करवाया। यह ‘बिटवीन फादर एंड सन: फैमिली लेटर्स’ नाम से भी उपलब्ध है। पिता की उनके जीवन में अहम भूमिका थी। उनके पिता लेखकों का बहुत सम्मान करते थे। शायद इससे नॉयपॉल को लेखक बनने की प्रेरणा मिली। इसीलिए जब वे गुजरे तो नॉयपॉल एक बार फिर अकेले हो गए। वैसे इस समय तक वे अपनी प्रेमिका पैट्रिशिया से विवाह कर चुके थे और लंदन में रह रहे थे। इस बार उन्हें अवसाद से निकाला उनके लेखन ने। वे लेखन में आकंठ डूब गए और लाइन से उनकी तीन किताबें, ‘द मिस्टिक मेस्यू’, ‘द सर्फेज आॅफ एलवीरा’ और ‘मिगुएल स्ट्रीट’ प्रकाशित हुईं। इतना ही नहीं इस काल में वे पुस्तक समीक्षा कर रहे थे और रेडियो प्रोग्राम भी बना रहे थे। ‘द मिस्टिक मेस्यू’ पर आगे चल कर 2001 में इस्माइल मर्चेंट ने इसी नाम से फिल्म बनाई। इस फिल्म में ओम पुरी, आसिफ मान्डवी, ऐयशा धारकर, जोहरा सहगल आदि ने अभिनय किया है और इसका संगीत जाकिर हुसैन ने बनाया है और स्क्रीनप्ले सैरिल फिलिप्स ने तैयार किया है। फिल्म ट्रिनिदाद और टैबागो में बसे भारतीयों की संस्कृति दिखाती है।
अपनी जड़ों से कटे हुए नॉयपॉल ने इंग्लैंड में रहते हुए अपनी जड़ों को खोज निकाला। उन्होंने अपने जन्मस्थान का इतिहास ढ़ूंढा और पाया कि इस स्थान का वास्तविक नाम चौहान था जो बिगड़ते-बिगड़ते छगुआनास बन गया था। शुरू में वे सीधी-सरल कहानियां लिख रहे थे, बचपन में उन्होंने जो देखा-सुना था उसे ही कहानियों की शक्ल दे रहे थे। बचपन की कुछ स्मृतियां, जैसे दादी का घर, गली, स्कूल आना-जाना उनकी स्मृतियों में गहरे धंसे हुए थे। इन बातों का उल्लेख वे अपने नोबेल भाषण के दौरान भी करते हैं। वे दादी के घर से निकलते, दो-तीन दुकानें पार करते, रास्ते में एक चाइनीज पार्लर, जुबिली थियेटर, साबुन बनाने वाली तीखी गंध की पुर्तगाली फैक्टरी पड़ती थी। यहां सूखने के लिए साबुन बाहर रखे होते। स्कूल के बाद परिया की खाड़ी तक गन्ने के खेत थे। यहां बसे भारतीयों के खेती के तरीके, तीज-त्योहार, पंचांग, पवित्र स्थान सब अपने और विशिष्ट थे। यह सब उनके लेखन में आया है। जब वे छह-सात साल के थे तभी वे लोग राजधानी पोर्ट आॅफ स्पेन के एक बड़े-से घर में रहने आ गए। वैसे स्कूल की शिक्षा शैली, जबरदस्ती बच्चे में सूचनाएं ठूंसना उन्हें पसंद न आया।
वे स्वयं को किसी देश, किसी भी संस्कृति से पूरी तरह नहीं जोड़ पाते हैं। न ट्रिनिदाद से, न भारत से और न ही इंग्लैंड से जहां वे बरसों रहे, जहां उन्होंने शादी की, जहां रहते वे लेखक बने, जहां रहते उन्हें साहित्य का नोबेल मिला और जहां 11 अगस्त 2018 को उनकी मृत्यु हुई। वे खंडित संस्कृति की उपज थे और शायद इसीलिए सदैव क्षुब्ध रहे। प्रत्येक समाज में वे स्वयं को बाहरी व्यक्ति मानते रहे। उन्होंने अपने नोबेल भाषण का शीर्षक भी ‘दो दुनिया’ (टू वर्ल्ड) दिया है। इसमें वे सोचते हुए कहते हैं कि उन्हें अपने पिता के पूर्वजों के विषय में खास ज्ञात नहीं है, वे केवल इतना जानते हैं कि उनमें से कुछ लोग नेपाल से आए थे। एक सूत्र के अनुसार बनारस में रहने वाले कुछ नेपाली स्वयं को नॉयपॉल कहते हैं। इस भाषण में वे अपनी दादी के घर और रहन-सहन का वर्णन करते हैं।
उनकी दादी का घर दो हिस्सों में बंटा हुआ था। बाहरी भाग ईंट-प्लास्टर का बना हुआ था, सफेदी किया हुआ। यह एक तरह का भारतीय आकार-प्रकार का घर था, जहां ऊपरी हिस्से में बड़ी खंभों वाली छत थी, जिसके ऊपरी हिस्से में पूजास्थल था जो काफी सजावटी था। खंभों पर कमल एवं देवी-देवताओं के चित्र बने हुए थे। वे कहते हैं यह ट्रिनिदाद की वास्तुकला में विचित्र लगता था। मानो अलग से चिपकाया गया हो। इस घर के पीछे इससे जुड़ी हुई फ्रÞेंच करैबियन शैली की टिम्बर की इमारत थी। दोनों घरों के बीच प्रवेश द्वार किनारे पर था। यह लकड़ी के चौखटे में लोहे का बना हुआ एक विशाल द्वार था। यह द्वार उन लोगों को एक खास तरह की निजता और पहचान देता था। बचपन में यह नॉयपॉल को दो दुनिया की अनुभूति देता था। लोहे के बड़े फाटक की दुनिया और घर के भीतर की दुनिया, उनकी दादी के घर की दुनिया। इसमें रहने वालों का नजरिया संकुचित था, ये लोग स्वकेंद्रित थे। मात्र भीतर देखने वाले, बाहर की दुनिया से अनजान। बाहर की दुनिया को जानने के लिए ये उत्सुक भी न थे। ये अंधेरे में रहने के आदी हो गए थे।
आप भले ही वीएस नॉयपॉल से सहमत न हों लेकिन उनकी बुद्धिमत्ता की आपको प्रशंसा करनी होगी। उनका बड़ा-से-बड़ा आलोचक भी उनकी इंग्लिश भाषा और निर्भीक लेखन की प्रशंसा करता है। 1990 में उन्हें सर की उपाधि और 2001 में नोबेल पुरस्कार यूं ही नहीं मिल गया था। उनके प्रशंसक और आलोचक दोनों उन्हें विद्वान और महान लेखक मानते हैं। उनके बेबाक लेखन को स्वीकार करते हैं। हालांकि उनकी अधिकांश किताबें आत्मकथात्मक हैं। 1957 में प्रकाशित ‘मिस्टिक मैस्यू’ उनकी पहली किताब थी लेकिन प्रसिद्धि उन्हें उनकी चौथी किताब, ‘ए हाउस फॉर मिस्टर बिश्वास’ से मिली। यह किताब उनके, उनके पिता और उन लोगों के घर के बारे में बताती है। वैसे यह सीधे-सीधे आत्मकथा नहीं है, फिक्शन है। पोर्ट आॅफ स्पेन में जिस घर में वे रहते थे उसे नॉयपॉल हाउस और लाइब्रेरी-म्युजियम बना दिया गया है। ‘ए हाउस फॉर मिस्टर बिश्वास’ में ‘गलत तरीके’ से जन्मे, जबरदस्ती ठेले गए मोहन बिश्वास को दुनिया ने खराब शकुन माना। वह स्वतंत्र जीवन जीने के लिए 46 साल प्रयास करता रहा। मिला केवल दुर्भाग्य। एक मकान से दूसरे मकान में रहते हुए उसे सदा एक घर की तलाश रही जिसे वह अपना कह सके। दबंग तुलसी परिवार में शादी करके वह पराश्रित बन गया। लेकिन उसने हार नहीं मानी और संघर्ष करता रहा। तीन साल में लिखा गया क्रूर हास्य-व्यंग्य से भरपूर यह उपन्यास साहित्य जगत में विशिष्ट स्थान रखता है।
अविश्वास और आलोचनात्मक दृष्टि से समाजों को देखने वाले नॉयपॉल ने खूब यात्राएं की और खूब रोचक यात्रा वृतांत लिखे। ‘द मिडिल पैसेज: इंप्रेशन्स आॅफ फाइव सोसाइटीज : ब्रिटिशम फ्रÞेंच एंड डच इन द वेस्ट इंडीज एंड साउथ अमेरिका’, ‘एन एरिया आॅफ डार्कनेस’, ‘द लॉस आॅफ एल डोराडो’, ‘इंडिया: ए वुंडेड सिविलाइजेशन’, ‘इंडिया: ए मिलियन म्यूटनीज नाऊ’, ‘ए कोन्गो डायरी’, ‘अमंग द बिलिवर्स: एन इस्लामिक जर्नी’, ‘ए टर्न इन द साउथ’, ‘बियॉन्ड बिलीफ: इस्लामिक एक्सकर्शन्स अमंग द कन्वर्टेड पीपुल्स’, ‘द मास्क आॅफ अफ्रÞीका: ग्लिम्पसेस आॅफ अफ्रÞीकन बिलीफ’ आदि उनके कथेतर गद्य के उदाहरण हैं। अपने अनुभव से उन्हें भारत, दक्षिण अमेरिका और वेस्ट इंडीज के समाज पाखंडी, नैतिकता से गिरे हुए, आलसी, अनपढ़-गंवार और जाहिल लगे। वैसे कुछ गलत भी नहीं लिखा है, उन्होंने। इन समाजों की इस स्थिति से जहां एक ओर वे क्रोधित थे वहीं दूसरी ओर दु:खी और क्षोभित भी। जब व्यक्ति किसी को प्यार करता है तभी उसे दु:ख और क्षोभ होता है, इससे स्पष्ट है कि उन्हें न केवल भारत से प्रेम था, वरन अन्य देशों के मनुष्यों से भी लगाव था।
दूसरी बार जब वे भारत आए भारत उन्हें घायल नजर आया। उन्हें लगा भारत का सदैव शोषण हुआ है। पहले मुस्लिम और फिर ब्रिटिशर्स ने इस देश को घायल किया है। ब्रिटिश लोगों से ज्यादा नुकसान और लूट इस्लाम के लोगों ने की है। ये बातें, अपने ये विचार उन्होंने विस्तार से ‘इंडिया: ए वुंडेड सिविलाइजेशन’ में लिखीं। उनके अनुसार भारत इतने आक्रमण और शोषण के बावजूद बचा रहा तो वह इसकी संस्कृति की जिजीविषा ही है। जब वे अपनी भारत यात्रा पर तीसरी बार आए, भारत को ले कर उनके दृष्टिकोण में काफी परिवर्तन हो चुका था। अपनी पहली भारत यात्रा में उन्हें यहां सिर्फ और सिर्फ कुरूपता नजर आई। संकरी गलियां और बजबजाते नाले-नालियां दिखीं। भूखे-नंगे-बीमार बच्चे दिखे। जो काफी हद तक सही है। मगर तीसरी किताब में उनका नजरिया थोड़ा नरम पड़ता है, उनके नकारात्मक दृष्टिकोण में काफी अंतर आता है। अब उन्हें लगता है कि भारत बदल रहा है। वास्तव में जब वे तीसरी बार भारत आए तो न केवल भारत परिवर्तित हो रहा था, नॉयपॉल भी परिवर्तित हो रहे थे। तब उन्होंने लिखी, ‘इंडिया: ए मिलियन म्यूटनीज नाऊ’। उन्होंने माना कि पहली बार उन्होंने भारत को ऊपर-ऊपर से ही देखा था। तब भी उन्हें इस्लामिक देशों की तुलना में भारत का जनतंत्र रुचता है।
वे इस्लाम की दुनिया से भी प्रसन्न न थे बल्कि उसके कटु आलोचक थे। उन्होंने इस्लामिक देशों की यात्रा के बाद ‘अमंग द बिलिवर्स: एन इस्लामिक जर्नी’,‘बियॉन्ड बिलीफ: इस्लामिक एक्सकर्शन्स अमंग द कन्वर्टेड पीपुल्स’और ‘द मॉस्क आॅफ अफ्रÞीका: ग्लिम्पसेस आॅफ अफ्रÞीकन बिलीफ’ जैसी किताबें लिखीं। उन्होंने इस्लामिक देशों की, वहां होने वाली घोर क्रूरता की इतनी भयंकर आलोचना की कि खुद उनकी आलोचना होने लगी। कई बार सच लिखना काफी महंगा पड़ जाता है, शुक्र है उन पर किसी ने फतवा नहीं दिया। किसी ने लिखा यदि ईसाई और यहूदी धर्म पर इस तरह लिखा जाता तो अमेरिका में प्रकाशन नहीं होता। अमेरिका जहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात बढ़-चढ़ कर होती है। असल में उन्होंने जो देखा वही बिना नमक-मिर्च लगाए लिखा। इस्लामिक देशों की यात्रा के दौरान उनकी मुलाकात नादिरा से हुई और वे उनकी तीसरी पत्नी बनी, उनकी पहली पत्नी की मृत्यु कैंसर से हुई थी। वे युगांडा के विश्वविद्यालय में ‘राइटर-इन-रेजीडेंस’ की फेलोशिप पर भी रहे। उत्तर औपनिवेशिक जीवन की चीर-फाड़ करना उन्हें भाता था। बिना चीर-फाड़ के मवाद बाहर नहीं आता है और मवाद बाहर न आए तो नासूर बन जाता है।
वी एस नॉयपॉल एक असंतुष्ट आत्मा थे। उन्होंने रुडयार्ड किपलिंग, जॉन मास्टर्स, आर के नारायण आदि कई इंग्लिश लेखकों को पढ़ा लेकिन किसी के भी लेखन से उन्हें संतोष न हुआ। जो वो पढ़ना चाहते थे, जो वो देखना चाहते थे, वो सब इन लेखकों की किताबों में था ही नहीं। शायद इसीलिए उन्होंने स्वयं लिखना प्रारंभ किया। जो अंधकार उन्हें अपने बचपन में अनुभव हुआ था, अब उनकी लेखन शैली बन चुका था। लेखन की प्रेरणा का श्रेय वे अपने पिता को देते हैं जो लेखकों का बहुत सम्मान करते थे। पिता बचपन में उन्हें तमाम तरह की कहानियां सुनाया करते थे। वैसे उनके पिता की और स्वयं उनकी दुनिया बहुत भिन्न थी। इतिहास और संस्कृति में रुचि रखने वाले नॉयपॉल के अनुसार उनकी किताबें उनके जीवन का सार हैं, उन्हें जो कहना है उन्होंने अपनी किताबों में कह दिया है इसीलिए उन्हें अलग से बोलना, भाषण देना नहीं रुचता था। सरल, सीधी-सादी भाषा में लिखने वाले नॉयपॉल राजनैतिक दृष्टि से स्वयं को एक तटस्थ लेखक मानते हैं, मगर उनके आलोचक ऐसा नहीं मानते, वे उन्हें पूर्वाग्रही लेखक मानते हैं।
अपने नोबेल भाषण में उन्होंने कहा कि वे अपना सर्वोत्तम लिख चुके हैं, मगर नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद भी उन्होंने ‘द राइटर एंड द वर्ल्ड: एसेज’, ‘लिटरेरी आॅकेजन्स: एसेस’ और उपन्यास ‘मैजिक सीड्स’ लिखा। साथ ही बहुत सारे लेख लिखे। अपनी आत्मकथा उन्होंने ‘द वर्ल्ड इज व्हाट इट इज’ नाम से लिखी। जब सलमान रुश्दी के लिए फतवा जारी किया गया तो नॉयपॉल ने कहा, ‘साहित्यिक आलोचना का चरम’। जब एस. नॉयपॉल की मृत्यु हुई तो सलमान रुश्दी ने कहा, ‘सारी जिंदगी हम राजनीति, साहित्य को ले कर असहमत रहे और मैं उदास अनुभव कर रहा हूं मानो अभी मैंने अपना प्यारा बड़ा भाई खो दिया हो।’ साहित्य जगत और भारत ने अपना एक हितैषी खोया है। अलविदा सर वी एस नॉयपॉल! श्रद्धांजलि!