असम में कमल खिलाने के बाद भाजपा पूर्वोत्तर के त्रिपुरा में भी वाम शासन को शिकस्त देने की कोशिशों में है। साठ सदस्यीय विधानसभा वाले इस राज्य में आदिवासियों की आबादी चौंतीस फीसदी है और यहां पच्चीस वर्षों से सीपीएम सत्ता में है। यहां भाजपा की राह आसान बनाने में आरएसएस और वनवासी कल्याण आश्रम भी कड़ी मेहनत कर रहे हैं। त्रिपुरा में अगले साल फरवरी में विधानसभा के चुनाव होने हैं। क्या है भाजपा की रणनीति और किन मुद्दों पर पार्टी चुनावी समर में उतरेगी अभिषेक रंजन सिंह के इन्हीं तमाम सवालों का जबाव दे रहे हैं त्रिपुरा में भाजपा के प्रभारी सुनील देवधर।
गुजरात में भाजपा को पिछली बार की तुलना में कम सीटें मिली हैं। हालांकि आदिवासी इलाकों में अच्छी कामयाबी मिली है। क्या आदिवासियों का झुकाव भाजपा की तरफ बढ़ रहा है? अगर ऐसा है तो त्रिपुरा में पार्टी को कितना फायदा होगा?
जी बिल्कुल, इस बार गुजरात के आदिवासी इलाकों में भाजपा की सीटों में इजाफा हुआ है। पिछले चुनाव में इन इलाकों में जहां हमें सात सीटें मिली थी वहीं इस बार यह आंकड़ा बढ़कर चौदह हो गया। मैं समझता हूं कि यह भाजपा सरकार के उल्लेखनीय कार्यों का नतीजा है। वैसे अगर कुछ वर्षों के आंकड़ों पर गौर करें तो देश में अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित सीटों पर भाजपा की जीत का आंकड़ा अधिक रहा है। झारखंड और छत्तीसगढ़ इसके उत्तम उदाहरण हैं। आदिवासियों के बारे में कहा जाता है कि वे कांग्रेस के परंपरागत वोटर रहे हैं। लोकतंत्र में परंपरागत जैसी शब्दावलियों के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। आजादी के बाद कांग्रेस ने इसी का फायदा उठाया और नुकसान वंचित जातियों को झेलना पड़ा। देश में साढ़े दस करोड़ आदिवासी रहते हैं। विकास जितना होना चाहिए वह नहीं हो पाया। इसी अनदेखी से नाराज आदिवासियों का कांग्रेस से मोहभंग हुआ और वे बेहतर भविष्य की उम्मीदों के साथ भाजपा के साथ जुड़ रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे उस दौरान आदिवासी इलाकों में विकास के कई उल्लेखनीय कार्य किए। आज अगर गुजरात के आदिवासी गांवों और वहां के लोगों को देखें तो आपको एहसास होगा कि वास्तविक विकास यही होता है। कांग्रेस के समय अमर सिंह चौधरी जैसे आदिवासी नेता भी मुख्यमंत्री बने लेकिन अपने शासन में वे आदिवासियों के लिए कुछ नहीं कर सके। मुख्यमंत्री रहते हुए नरेंद्र मोदी ने गुजरात में आदिवासी कल्याण मंत्रालय बनाया। केंद्र में सबसे पहले अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में जनजातीय कल्याण मंत्रालय बना। इसका सर्वाधिक फायदा पूर्वोत्तर के आदिवासियों को मिला। देश में आदिवासियों की कुल आबादी का पचास फीसद पूर्वोत्तर में निवास करता है। झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे आदिवासी बहुल राज्यों का गठन भाजपा की सरकार में हुआ। इससे यह बात सिद्ध होती है कि भाजपा आदिवासियों के कल्याण के प्रति गंभीर है। अगले साल फरवरी में त्रिपुरा में विधानसभा के चुनाव होने हैं। इस बार वहां भाजपा की सरकार बनेगी।
त्रिपुरा में ढाई दशक से सीपीएम सत्ता में है। भाजपा वहां अब तक अपना खाता भी नहीं खोल पाई है। ऐसे में सरकार बनाने के आपके दावे का आधार क्या है?
त्रिपुरा की सीपीएम सरकार भ्रष्टाचार और अपराध के आकंठ में डूबी है। गरीबी और बेरोजगारी वहां के लोगों का मुख्य मुद्दा है। दिल्ली का मीडिया पूर्वोत्तर से जुड़ी खबरों को उतना तव्वजो नहीं देता। आप वहां जाकर देखें कि जनता में माणिक सरकार के खिलाफ कितना आक्रोश है। लोगों का यही गुस्सा भाजपा के वोट में तब्दील होगा। पूर्वोत्तर के राज्यों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का बार-बार जाना यह साबित करता है कि वे पूर्वोत्तर के आदिवासियों के प्रति गंभीर हैं। पूर्वोत्तर में तीन रात गुजारने वाले नरेंद्र मोदी पहले प्रधानमंत्री हैं। चालीस साल बाद उनके समय में नार्थ-ईस्ट काउंसिल की मीटिंग शुरू हुई। केंद्र सरकार का एक मंत्री हर पखवाड़े नार्थ-ईस्ट की यात्रा पर जा रहा है। साढ़े तीन साल में करीब डेढ़ सौ बार केंद्रीय मंत्रियों ने पूर्वोत्तर की यात्रा की और वहां केंद्रीय योजनाओं की समीक्षा की। त्रिपुरा में आज तक कोई केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री नहीं गया। लेकिन जेपी नड्डा आजादी के बाद पहले ऐसे स्वास्थ्य मंत्री हैं जो त्रिपुरा आए। राज्य में हमारी सरकार बनेगी इसमें कहीं कोई शंका नहीं है।
भाजपा किन मुद्दों के साथ चुनावी मैदान में उतरेगी?
सबका साथ सबका विकास ही भाजपा का मूलमंत्र है। पच्चीस वर्षों के वाम शासन में गरीबों की संख्या कम होने की बजाय बढ़ती चली गई। आपको जानकर हैरानी होगी कि त्रिपुरा की 67 फीसदी आबादी गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर कर रही है। 1998 में माणिक सरकार जब मुख्यमंत्री बने उस समय राज्य में पंजीकृत बेरोजगारों की संख्या पचासी हजार थी। बीते उन्नीस वर्षों में संख्या बढ़कर आठ लाख हो गई है। 1993 में सीपीएम यहां सत्ता में आई। इसी साल वहां चौथा वेतनमान लागू हुआ। पच्चीस वर्ष बाद भी वहां के सरकारी कर्मचारियों की यही सैलरी है। मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने के बाद सातवां वेतनमान लागू हुआ। असम में भी पांचवां वेतनमान ही चल रहा था लेकिन वहां भाजपा की सरकार बनने के तुरंत बाद सातवां वेतनमान लागू कर दिया गया। त्रिपुरा में मतदाताओं की कुल संख्या पच्चीस लाख है जिनमें राज्य सरकार के कर्मचारियों की संख्या दो लाख है। ढाई लाख के करीब पेंशनर हैं जो अपने बेहतर भविष्य के लिए इस बार भाजपा के पक्ष में मतदान करेंगे। इसी प्रकार त्रिपुरा में पैंसठ हजार सरकारी नौकरियों के पद खाली हैं। बांग्लादेशी घुसपैठ, गौवंश की तस्करी और विकास कई ऐसे मुद्दे हैं जिन पर भाजपा का फोकस है। इन्हीं मुद्दों के साथ हम चुनाव में उतरेगें और वाम शासन का अंत करेंगे।
त्रिपुरा चुनाव में प्रधानमंत्री की क्या भूमिका होगी। उनके अलावा भाजपा का कौन नेता चुनावी नैया पार लगा सकता है?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हमारे सर्वोच्च नेता हैं और उनकी जनसभाओं में काफी भीड़ भी जुटती है। लोग उन्हें सुनना पसंद करते हैं इसलिए वे तो प्रचार करेंगे ही। इसके अलावा पार्टी के तमाम नेता और मुख्यमंत्री भी जनसभाएं करेंगे। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी त्रिपुरा में स्टार प्रचारक होंगे। इसकी वजह है उनका नाथ संप्रदाय से संबंध होना। आपको जानकर हैरानी होगी कि त्रिपुरा में नाथ संप्रदाय से जुड़े सतरह छोटे-बड़े मंदिर हैं। त्रिपुरा में ओबीसी की आबादी तीस फीसद है और उनमें अस्सी फीसद लोग नाथ संप्रदाय से जुड़े हैं। नाथ संप्रदाय से जुड़े वोटरों की कुल संख्या छह लाख है। योगी आदित्यनाथ पहले भी त्रिपुरा आते रहे हैं प्रवचन देने। त्रिपुरा चुनाव में भाजपा की कामयाबी में वह एक बड़ी भूमिका निभाएंगे।
क्या भाजपा दूसरी पार्टियों के साथ गठबंधन भी करेगी?
निश्चित रूप से हम विधानसभा चुनाव में गठबंधन करेंगे ताकि सीपीएम शासन का खात्मा कर सकें। त्रिपुरा में हम इंडीजीनियस नेशनल पीपुल आॅफ त्रिपुरा (आईएनपीटी) और इंडीजीनियस पीपुल फ्रंट आॅफ त्रिपुरा के साथ चुनावी गठबंधन करेंगे। इन दोनों पार्टियों का जनजातीय इलाकों में अच्छा असर है। ये दोनों पार्टियां भी हर हाल में सीपीएम को सत्ता से बाहर देखना चाहती हैं। त्रिपुरा में आदिवासियों के लिए बीस सीटें आरक्षित हैं और दलितों के लिए दस सीटें। इन सभी जगहों पर भाजपा और उसके सहयोगी दलों को सफलता मिलेगी।