बनवारी
अमेरिका और रूस के बीच शिखर वार्ता एक बहुत बड़ी राजनीतिक पहल है। इसकी तुलना 1970 में चीन से संबंध जोड़ने की राष्ट्रपति निक्सन की पहल से की जा सकती है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प 2016 में जब राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ रहे थे, तब भी वे रूस से संबंध सुधारने की वकालत कर रहे थे और रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमिर पुतिन की तारीफ कर रहे थे। फिर भी किसी ने यह आशा नहीं की थी कि दोनों राष्ट्रपति इतनी जल्दी शिखर वार्ता के लिए मिलेंगे। डोनाल्ड ट्रम्प अपने अप्रत्याशित कदमों के लिए ही जाने जाते हैं। इसलिए उनकी रूसी राष्ट्रपति पुतिन से 16 जुलाई को फिनलैण्ड की राजधानी हेलसिंकी में न केवल वार्ता हुई बल्कि दोनों ने ही उसे सकारात्मक बताया। ब्लादिमिर पुतिन से भी अधिक डोनाल्ड ट्रम्प अपनी इस पहल के बारे में आशान्वित हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में रूस की कथित दखलंदाजी को लेकर उन्होंने ऐसा बयान दिया, जो शायद दूसरा कोई अमेरिकी राष्ट्रपति नहीं दे सकता था। उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति पुतिन ने अमेरिकी चुनाव में किसी दखलंदाजी से इनकार किया है। वे उनके इस बयान पर विश्वास करते हैं, अमेरिकी खुफिया एजेंसियों और सुरक्षा अधिकारियों पर नहीं, जो इस तरह की दखलंदाजी की जांच-पड़ताल कर रहे हैं। उनके इस बयान की अमेरिका में काफी आलोचना हुई। उन्हें सफाई में यह कहना पड़ा कि राष्ट्रपति के चुनाव में रूसी गुप्तचर एजेंसी के जिन भी लोगों ने दखल देने की कोशिश की हो, इसकी जिम्मेदारी राष्ट्रपति पुतिन पर आती है। लेकिन वे अपनी शिखर वार्ता को लेकर पीछे नहीं हटे। उन्होंने कहा कि उनकी राष्ट्रपति पुतिन से एकांत में दो घंटे बात हुई और उसमें कही गई बातों को वे बहुत सकारात्मक मानते हैं। अब वे राष्ट्रपति पुतिन के साथ अगली शिखर वार्ता का इंतजार कर रहे हैं। उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा है कि वे अब पुतिन को वाशिंगटन में व्हाइट हाउस के भीतर निमंत्रित करने वाले हैं।
अभी किसी को यह आशा नहीं है कि डोनाल्ड ट्रम्प की इस पहल से अमेरिका और रूस के संबंध सुधर जाएंगे। क्रीमिया में रूसी हस्तक्षेप के बाद से अमेरिका और रूस के संबंध काफी खराब रहे हैं। यह बात डोनाल्ड ट्रम्प भी कह चुके हैं और राष्ट्रपति पुतिन भी। दोनों ने कहा है कि अमेरिका और रूस के संबंध इतने खराब शीत युद्ध के दिनों में भी नहीं थे, जितने पिछले दिनों रहे हैं। यह अतिशयोक्ति हो सकती है। लेकिन दोनों ही नेताओं ने कहा है कि स्थिति को सुधारा जा सकता है। अपनी चिर-परिचित आक्रामक शैली में दोनों महाशक्तियों के बीच संबंध बिगड़ने के लिए डोनाल्ड ट्रम्प ने अपने पूर्व के राजनीतिक प्रतिष्ठान को जिम्मेदार ठहराया और कहा कि उसकी बेवकूफियां संबंधों को गिराने के लिए जिम्मेदार हैं। अभी अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प की इस पहल का अधिक समर्थन दिखाई नहीं दे रहा। उनके आलोचक अधिक हैं और समर्थक कम। उनकी इस पहल का विरोध डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता ही नहीं कर रहे, रिपब्लिकन पार्टी के नेता भी कर रहे हैं। लेकिन यह मानना भूल होगी कि इतनी बड़ी पहल डोनाल्ड ट्रम्प की अपनी इच्छा का ही परिणाम है। अमेरिकी राजनीतिक प्रतिष्ठान में डोनाल्ड ट्रम्प के आलोचक मुखर हैं। लेकिन उनके समर्थक भी हैं, जो यह मानते हैं कि अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियां बदल गई हैं। इसलिए अंतरराष्ट्रीय समीकरण बदलने की आवश्यकता है। ये सब बातें अकादमिक स्तर पर काफी दिन से कही जा रही हैं। अनेक अमेरिकी विश्लेषकों को लगता है कि अमेरिका को अब रूस से नहीं, चीन से खतरा है। इस नई चुनौती का मुकाबला करने के लिए रूस को साथ लेने की आवश्यकता है। डोनाल्ड ट्रम्प ने यह सूत्र पकड़ लिया और इस दिशा में बोलना और सोचना शुरू कर दिया।
डोनाल्ड ट्रम्प के सामने रूस से संबंध सुधारने के और भी महत्वपूर्ण कारण हैं। डोनाल्ड ट्रम्प को लगता है कि अंतरराष्ट्रीय पचड़ों में पड़कर अमेरिका अपनी शक्ति और साधनों का अनावश्यक अपव्यय कर रहा है। उन्हें लगता है कि सबसे पहले अमेरिका को अपनी आंतरिक स्थिति दृढ़ करनी चाहिए। 2008 के बाद से अमेरिका में यह धारणा मजबूत हुई है कि अमेरिका की आंतरिक स्थिति उतनी अच्छी नहीं है। वैश्वीकरण के दौर में उसके कल-कारखाने बाहर चले गए। इससे उसके सामान्य नागरिकों के आर्थिक संकट बढ़ गए। उनके लिए जीवन अब उतना आसान नहीं रह गया। इसी से डोनाल्ड ट्रम्प ने बाहर गए कल-कारखाने वापस अमेरिका लाने की मुहिम छेड़ी। पर यह उतना आसान नहीं है। अमेरिकी कंपनियां बहुराष्ट्रीय हो गई हैं और उनके फैसले इस बात पर निर्भर हैं कि उन्हें कहां ज्यादा मुनाफा मिल रहा है। इसी तरह डोनाल्ड ट्रम्प को लगता है कि इराक पर हमला करना अमेरिका की बहुत बड़ी भूल थी। इससे मध्य-पूर्व की राजनीति पेचीदा हो गई है। अमेरिका मध्य-पूर्व में फंसा हुआ है, अफगानिस्तान में फंसा हुआ है और कोरिया में फंसा हुआ है। इन झंझटों में उसकी बहुत शक्ति और साधन खर्च हो रहे हैं। डोनाल्ड ट्रम्प को लगता है कि इस बोझ को हल्का करने में रूस मददगार साबित हो सकता है। अभी रूस उसकी उलझनें बढ़ा रहा है। सीरिया में वह खुलकर राष्ट्रपति असद के साथ है। अफगानिस्तान में तालिबान की मदद कर रहा है। कोरिया में उसने उत्तर कोरिया के नेताओं की पीठ पर हाथ रखा हुआ है। अमेरिका उसे इन सब जगहों से अपने हाथ खींचने के लिए मनाना चाहता है। यही सब मुद्दे हेलसिंकी की शिखर वार्ता में उठे थे। डोनाल्ड ट्रम्प को आशा है कि इस संवाद के सकारात्मक परिणाम निकल सकते हैं।
डोनाल्ड ट्रम्प की रूस से संबंध सुधारने की कोशिश के बारे में केवल अमेरिकी राजनीतिक प्रतिष्ठान ही शंकित नहीं हैं। पश्चिमी यूरोप में भी ट्रम्प की इस नीति को काफी शंका से देखा जा रहा है। डोनाल्ड ट्रम्प को अब नाटो भी अनावश्यक लगता है। वे अब तक अनेक बार यह शिकायत कर चुके हैं कि नाटो का अधिक खर्च अमेरिका को ही उठाना पड़ता है। यूरोपीय देश उसके खर्च की अपने ऊपर अधिक जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार नहीं होते। डोनाल्ड ट्रम्प का मानना है कि अगर यूरोपीय देशों को रूस से असुरक्षा लगती है तो वे अपना रक्षा बजट बढ़ाएं। ऐसा क्यों हो कि यूरोप की सुरक्षा का भार अमेरिका को ही उठाना पड़े। इतना ही नहीं, डोनाल्ड ट्रम्प को अब रूस के विस्तारवाद का खतरा दिखाई नहीं देता। दूसरे महायुद्ध के बाद जब सोवियत रूस ने पूर्वी यूरोप को अपने प्रभामंडल में ले लिया था, शेष यूरोप की रक्षा के लिए नाटो की स्थापना हुई थी। 1990 में सोवियत रूस बिखर गया और पूर्वी यूरोप के देश उसके प्रभामंडल से निकल गए। उसके बाद यह मान लिया गया था कि शीत युद्ध का दौर समाप्त हो गया है। उस समय नाटो पर सवाल उठने शुरू हुए थे। लेकिन रूस में पुतिन के सत्ता में आने के बाद फिर आशंकाएं बढ़ने लगीं। क्रीमिया में रूसी हस्तक्षेप के बाद एक बाद फिर रूसी विस्तारवाद का खतरा देखा जाने लगा। लेकिन डोनाल्ड ट्रम्प इस आशंका को अतिरंजित मानते हैं। उन्हें नहीं लगता कि यूरोपीय देशों को रूस से कोई खतरा हो सकता है। इसलिए वे नाटो के बारे में नकारात्मक रवैया अपनाए हुए हैं।
अभी ऐसा लगता है कि रूस से संबंध सुधारने की डोनाल्ड ट्रम्प की कोशिश सफल नहीं हो पाएगी। उसका अमेरिका के भीतर भी विरोध हो रहा है और बाहर भी। प्रचार माध्यमों ने आम अमेरिकी के मन में रूस की जो छवि बना रखी है, वह एक दुश्मन की ही छवि है। उनके लिए उसमें एक दोस्त की संभावना देखना आसान नहीं है। इस छवि को हल्का करने के लिए डोनाल्ड ट्रम्प ने एक अनोखा तरीका अपनाया है। उन्होंने अपनी यूरोप यात्रा के दौरान कहा कि उनका सबसे बड़ा दुश्मन तो यूरोपीय संघ है। फिर इस टिप्पणी को कुछ हल्का करते हुए कहा कि कुछ मायने में रूस भी दुश्मन है। आर्थिक चुनौती बना हुआ चीन भी दुश्मन है। दुश्मन होने का यह मतलब नहीं कि वे बुरे हैं। उसका मतलब यह है कि वे अमेरिका के प्रतिस्पर्धी हैं। अब तक का कोई अमेरिकी राष्ट्रपति इस तरह की व्याख्या नहीं कर सकता था। निश्चय ही अमेरिकी इन तीनों को एक कोटि में नहीं रखेंगे। यूरोप से अमेरिका के जातीय संबंध हैं। लेकिन अमेरिका मानता है कि यूरोप उन पर निर्भर है, वह यूरोप पर निर्भर नहीं है। पिछले दिनों पर्यावरण से लेकर चीन के साथ व्यापार तक अनेक मामलों में यूरोपीय संघ ने अमेरिका से स्वतंत्र नीति अपनाई। बल्कि वह अमेरिकी नीतियों के विरुद्ध दिखाई दिया। डोनाल्ड ट्रम्प की नाराजगी इस बात को लेकर भी है। डोनाल्ड ट्रम्प मानते हैं कि अब रूस उनके लिए कोई वैचारिक चुनौती नहीं है। पूंजीवाद बनाम साम्यवाद का दौर बीत चुका है। इसलिए अमेरिका को रूस के बारे में अपना दृष्टिकोण बदलना चाहिए। आखिरकार दूसरे महायुद्ध तक दोनों देश एक ही खेमे में थे। रूस को भौगोलिक रूप से यूरेशिया कहा जाता है, पर है वह यूरोपीय ही।
आजकल रूस से संबंध सुधारने को लेकर जैसा विरोध डोनाल्ड ट्रम्प का हो रहा है, वैसा ही विरोध चीन से रिश्ते सुधारते समय राष्ट्रपति निक्सन का हुआ था। आज जिस तरह क्रीमिया में हस्तक्षेप को लेकर रूस की आलोचना होती है, उसी तरह उन दिनों सांस्कृतिक क्रांति में हुए उत्पीड़न को लेकर चीन को एक बर्बर देश दिखाया जा रहा था। फिर भी निक्सन चीन गए। वहां वह माओ से भी मिले। निक्सन और माओ की भेंट के बावजूद अमेरिका और चीन के संबंध कोई रातोंरात नहीं सुधर गए। उसमें समय लगा। शुरू में हांगकांग के रास्ते अमेरिकी कंपनियां चीन गर्इं। फिर उनके लिए चीन ने अपने दरवाजे सीधे खोल दिए। उस समय अमेरिका दो कारणों से चीन से अपने संबंध सुधारने के लिए प्रेरित हुआ था। एक कारण तो यह था कि स्टालिन की मृत्यु के बाद चीन सोवियत रूस से दूर चला गया था। चीन के नेताओं ने ख्रुश्चेव आदि को संशोधनवादी घोषित कर दिया था और वे अपने आपको सोवियत खेमे से अलग कर चुके थे। अमेरिका के लिए उस समय सोवियत रूस ही सबसे बड़ा शत्रु था, उससे दूर जाते हुए चीन को उसने संबंध बनाने लायक समझा। दूसरे चीन जनसंख्या की दृष्टि से बहुत बड़ा देश है। उसके एक बड़ा बाजार बनने की संभावना थी। अमेरिका को लगता था कि उसके तेज औद्योगिकीकरण में मदद दी जाए तो अमेरिकी सामान का वह बहुत बड़ा बाजार बन जाएगा। इस प्रक्रिया में अमेरिका ने अपने प्रदूषण फैलाने वाले कल-कारखाने उसे स्थानांतरित कर दिए। आज चीनी सामान का स्वयं अमेरिका बड़ा बाजार हो गया है। चीन उससे खरीद कम रहा है बेच अधिक रहा है।
उस समय जिस तरह चीन में अमेरिकी प्रतिष्ठान ने दूरगामी संभावनाएं देखी थीं, उसी तरह डोनाल्ड ट्रम्प रूस से संबंध सुधारने के दूरगामी लाभ देख रहे हैं और अमेरिकियों को दिखाना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि भविष्य की चुनौती एशिया से उभरती हुई शक्तियां हैं। इस नई स्थिति का सामना करने के लिए सभी यूरोपीय शक्तियों को एक हो जाना चाहिए। डोनाल्ड ट्रम्प की इस बात से अभी अधिक लोग सहमत दिखाई नहीं देते। उसका एक बड़ा कारण यह है कि यूरोपीय देश अपनी समस्याओं में फंसे हुए हैं। अपनी आर्थिक समस्याओं से निकलने के लिए उन्हें चीन से संबंध बढ़ाना लाभदायक दिखाई देता है। इसलिए कम से कम अभी वे डोनाल्ड ट्रम्प की इस नई दिशा को गंभीरता से लेने के लिए तैयार नहीं हैं। लेकिन ऐसा लगता है कि डोनाल्ड ट्रम्प ने अमेरिकियों के दिमाग में इस नई दिशा का एक खाका डाल दिया है। उस पर मंथन होता रहेगा। अमेरिका में हमेशा एक से अधिक विचार रहे हैं। अंतत: डोनाल्ड ट्रम्प अपनी बात मनवा पाएंगे या नहीं, कुछ कहा नहीं जा सकता। वैसे भी इस तरह के परिवर्तन रातोंरात नहीं हो जाया करते। उसमें समय लगता है। अलबत्ता डोनाल्ड ट्रम्प कुछ जल्दी में दिखाई देते हैं। वे हर समय हवा में तलवार चलाते हुए दिखाई देते हैं। लेकिन डोनाल्ड ट्रम्प की इन नीतियों के पीछे वास्तविक परिस्थितियां हैं। वह एक आदमी की खब्त नहीं है।
डोनाल्ड ट्रम्प का तर्क है कि पिछले दिनों अनावश्यक पचड़े में पड़ने के कारण अमेरिका की शक्ति काफी कुछ छीज गई है। अगर उसे अपनी अग्रता बनाए रखनी है तो अपनी शक्ति और साधनों को अपने भीतर सिकोड़ना होगा। आज डोनाल्ड ट्रम्प जो कह रहे हैं, उसकी तुलना पिछली दो घटनाओं से की जा सकती है। दूसरे महायुद्ध के बाद यूरोप की शक्ति काफी छीज गई थी। अपनी शक्ति को संचित करके अपना पुनर्निर्माण करने के लिए ही यूरोपीय महाशक्तियों ने अपने उपनिवेश छोड़ने का फैसला किया था। उन्हें भी लग रहा था कि उपनिवेशों को संभालने में उनकी काफी शक्ति लग रही है। 1950 से लगाकर 1970 तक लगभग सभी उपनिवेश स्वतंत्र कर दिए गए थे। इसी तरह की घटना सोवियत संघ का बिखरना थी। रूसी नेताओं को लगा कि रूस की शक्ति सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के सहयोगी देशों को संभालने में छीज रही है। यह ध्यान रखना चाहिए कि सोवियत संघ के विघटन का फैसला किसी और ने नहीं, रूसी नेताओं ने ही किया था। वे अपनी शक्ति और साधनों का संचय करके फिर से शक्तिशाली होना चाहते थे। ठीक उसी तरह डोनाल्ड ट्रम्प का तर्क है कि अमेरिका को अब पहले अपना घर संभालना चाहिए। पर यह कहना जितना आसान है, उतना करना नहीं। घोषित करने के बाद भी ट्रम्प अमेरिका को अफगानिस्तान से नहीं निकाल पाए। रूस से संबंध सुधारने में एक बाधा अमेरिकी कांग्रेस द्वारा पारित आर्थिक प्रतिबंध हैं। ट्रम्प को विश्वास है कि संबंध सुधरते दिखे तो इसका भी रास्ता निकल आएगा। रूस से संबंध सुधारकर अमेरिका अनेक पचड़ों से निकलना चाहता है। यह हो पाएगा या नहीं, समय ही बताएगा।