भारतीय साहित्य और संस्कृति के जाने माने हस्ताक्षर नरेंद्र कोहली केंद्र सरकार की उस समिति का हिस्सा हैं जिसने भारत की प्रचीन पहचान और ज्ञान-विज्ञान व इतिहास का वैज्ञानिक व तथ्यात्मक अध्ययन करने को लेकर अपने सुझाव दिए हैं। अजय विद्युत ने उनसे बातचीत की।
केंद्र सरकार के संस्कृति मंत्रालय की तरफ से विशेषज्ञों की एक कमेटी बनाई गई जिसने हाल में अपनी रिपोर्ट दी है। इसने बारह हजार साल के कालक्रम में भारतीय संस्कृति और सभ्यता के उद्भव और विकास को तथ्यात्मक व वैज्ञानिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत करने संबंधी आधारभूत खाका बनाया है। आजाद तो हम सत्तर साल पहले हो गए थे। इतने समय में हम अपने इतिहास की साज संभाल क्यों नहीं कर पाए, भारत के पुराने ऐतिहासिक तथ्यों को सही दृष्टि से सामने रखने में हिचक या बाधा क्या थी?
सबसे पहली बात यह कि जब हमारे देश पर तुर्कांे का आक्रमण हुआ तो उस समय हमारे पढ़ने लिखने की जो भाषा थी- संस्कृत- वह हमसे छीन ली गई। नालन्दा विश्वविद्यालय के पुस्तकालय को किस तरह से जलाया गया यह सब जानते हैं। किताबें जला जलाकर खाना पकाया गया। वह इसलिए नहीं था कि उनके पास खाना पकाने का र्इंधन नहीं था। उन्होंने ऐसा इसलिए किया क्योंकि वे आपका ज्ञान जलाना चाहते थे। जो कुछ बचा भी रहा हमारे पास वह सब संस्कृत में था और संस्कृत का ज्ञान नहीं था लोगों को। आज भी संस्कृत के तमाम पंडित संस्कृत के शब्दों को बहुत गलत ढंग से बताते हैं जिससे कुछ का कुछ हो जाता है। अब जैसे तैंतीस करोड़ देवताओं की बात की जाती है। यह शब्द संस्कृत में है कोटि। कोटि मतलब प्रकार। यानी तैंतीस प्रकार के देवता- तैंतीस करोड़ नहीं। जैसे आदित्य एक हैं अश्विनी कुमार दो हैं- इस तरह इनको मिलाकर तैंतीस होते हैं। तो भाषा को ठीक से न जानने के कारण यह हुआ कि जिन लोगों ने ग्रंथों को बचाकर रखा अपनी आजीविका, पूजा-पाठ के लिए, उन लोगों ने भाषा को सीखने का प्रयत्न नहीं किया… और बाकी किसी को तो आती नहीं थी। आज भी आप चले जाइए किसी मठ मंदिर में- मैं गया था द्वारिका में रुक्मिणी मंदिर। देखा वहां जो पंडितजी बैठे हुए थे वह लोगों को इधर उधर की गलत सलत कहानियां सुना रहे थे। मैंने जब उनसे कुछ प्रश्न पूछे तो पता चला कि उन्होंने भागवत् पुराण पढ़ा ही नहीं। यानी रुक्मिणी का मंदिर बनाकर उसमें बैठे हुए हैं लेकिन भागवत् पुराण नहीं पढ़ा है। तो अज्ञान इस प्रकार से भी था। जो मंदिर में बैठा पुजारी है उसका ज्ञान और स्थिति चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी या चौकीदार से ज्यादा नहीं है।
दूसरी बात विवेकानंद की उस उक्ति को भी याद रखिए जो उन्होंने अलवर में कही थी कि हिंदुओं ने अपना इतिहास कभी नहीं लिखा। जो इतिहास के नाम पर आपको उपलब्ध हुआ, जो पढ़ाया-बताया जाता है, वह विदेशियों का लिखा है। वो तुर्क, मुगल, पठान भी हो सकते हैं… अंग्रेज, फ्रेंच और पुर्तगाली भी हो सकते हैं। उन लोगों ने आपका इतिहास इसलिए नहीं लिखा कि आपका गौरव बढ़े। उन्होंने आपको यह बताने के लिए लिखा कि आपके पास जो कुछ भी है वह सब निकृष्ट कोटि का है। आपका धर्म, आपकी संस्कृति, आपकी भाषा, आपका साहित्य सब निकृष्ट कोटि का है यह बताया उन्होंने। उसी को आज तक ये पढ़ाए चले जा रहे हैं।
और फिर जब देश स्वतंत्र हुआ तो यह फैसला हुआ कि हमारा देश सेक्युलर है। इसलिए चौराहे पर खड़े किसी मकबरे की मरम्मत तो होगी, लेकिन हिंदुओं के जो बड़े बड़े उनसे भी प्राचीन किले, मंदिर या इसी प्रकार के महत्वपूर्ण भवन हैं उनकी मरम्मत नहीं होगी क्योंकि हम तो सेक्युलर हैं और धर्म के नाम पर हम कुछ नहीं करेंगे। मुझे लगता है कि ये तीन बड़े कारण हैं जिनकी वजह से हम अपनी प्राचीन धरोहर को न तो जान सके, न अपने आप को उससे ज्ञानी बना सके और न गौरवान्वित हो सके।
सरकार की तरफ से जो ताजा प्रयास हो रहे हैं उनको देखते हुए आप कितने आशान्वित हैं?
केवल उस समिति की रिपोर्ट से कुछ नहीं होगा, कुल मिलाकर हमें अपनी शिक्षा पद्धति को बदलना होगा। और यहां तो होता है यह कि आपने एक शब्द इधर से उधर किया तो चारों तरफ शोर मचता है कि भगवाकरण हो रहा है। हम आर्यभट्ट का नाम लेते हैं कि उसने शून्य का आविष्कार किया पर क्या किसी पाठ्यक्रम में आर्यभट्ट पढ़ाया जाता है। चाणक्य की बात करते हैं लेकिन अर्थशास्त्र में कहीं चाणक्य पढ़ाया जाता है। तो अगर हम अपने देश के महान इतिहास में कुछ खोज भी लेंगे लेकिन उसे पढ़ाएंगे नहीं तो आने वाली पीढ़ी को तो उसके बारे में कुछ पता चलेगा नहीं। तो हम जो कुछ अपनी पीढ़ी के लिए करेंगे वह अपनी पीढ़ी के साथ ही समाप्त हो जाएगा। तो एक बड़ी समस्या एक तो यह है कि उस भाषा को जिसमें वह पूरा ज्ञान है उसे सही तरह से जानने समझने के प्रयत्न नहीं किए गए। संस्कृत में केवल पूजा पाठ नहीं है। उसमें विज्ञान, आधुनिक भौतिक विज्ञान के हर हिस्से पर बहुत पांडुलिपियां उपलब्ध हैं। आयुर्वेद की पांडुलिपियां हैं काफी। लेकिन इसके बारे में तो लोग फिर भी कुछ जानते हैं और कुछ लोग उस पर काम कर रहे हैं, सरकार भी कर रही है। लेकिन बाकी जो शास्त्र हैं भौतिक शास्त्र, रासायनिकी, गणित, भूगोल आदि हैं उसके बारे में इस तरह का कोई काम नहीं हो रहा और न ही उनके बारे में अगली पीढ़ियों को बताया जा रहा है।
आप भी सरकार द्वारा गठित इस समिति के सदस्य हैं। समिति ने किन किन मानकों के आधार पर कुछ तथ्यों की खोज की- क्या आप बता पाएंगे?
नहीं। (हंसते हुए) मुझे मालूम है कि ऐसी समिति बनी है। मैं उसमें एक बार भी गया नहीं हूं। और मैंने उनका कोई काम देखा नहीं है इसलिए इस बारे में मैं अभी कुछ नहीं कह सकता।
अगर हमारे देश में इतिहास दोबारा लिखा जाएगा तो क्या यह इतना आसान काम होगा?
कठिन काम है। बहुत कठिन काम है। लेकिन करना चाहें तो क्या नहीं हो सकता। कुछ वर्ग और व्यक्ति कहते हैं कि भारतीय संस्कृति और सभ्यता के प्राचीन गौरव के बहाने सरकार भगवाकरण की कोशिश कर रही है। इस बहाने सरकार केवल हिंदुओं के उत्थान को दिखाना चाहती है और बाकी वर्गांे को उपेक्षित रखना चाहती है?
बाकियों का पहले ही बहुत कुछ लिखा हुआ है। बाबरनामा, अकबरनामा, तुज्क ए जहांगीरी है। इसके अलावा अरब से आए इतिहासकारों का लिखा हुआ है। यूरोप के लोगों का लिखा हुआ है। तो जिनको दबाया गया, मिटाया गया, छुपाया गया- वो तो हिंदुओं का ही इतिहास और हिंदुओं की ही पुस्तकें हैं ना। तो उसी को निकालेंगे या फिर बाबर, अकबर और औरंगजेब पर लिखेंगे।
हमारे भारतीय होने की पहचान या गौरव को बताने से प्राय: कुछ लोग परहेज करते हैं। ऐसा क्यों रहता है?
इसके दो कारण हैं। एक तो यह कि आपको नहीं मालूम है अपने विषय में। जितने पढ़े लिखे लोग हैं या जिनको पढ़ा लिखा माना जाता है आज वे सब अंग्रेजी माध्यम से पढ़े हुए और विदेशी ज्ञान को जानने वाले लोग हैं। यानी उनके लिए इस संसार में दो हजार साल से पहले कुछ भी नहीं था। और जब हम भारतीय दृष्टि की बात करते हैं, पौराणिक ग्रंथों की बात करते हैं तो वह लाखों सालों में जाता है। ये अलग बात है कि दुनिया के वैज्ञानिक यह कहेंगे कि एक अरब साल पहले इस तरह का एक प्राकृतिक कोई परिवर्तन आया। तो वे तो अरबों वर्षांे की बात कर रहे हैं और उसको आप मान लेंगे लेकिन जब पुराण का गणित आपके सामने आएगा कि भगवान राम को एक लाख वर्ष हुए हैं तो आप उसको नहीं मानेंगे। उसके लिए आप कहेंगे कि दो हजार साल से पहले तो कुछ था ही नहीं। महाभारत तक को ये पांच हजार वर्ष पुराना बड़ी मुश्किल से मान पाए हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि पश्चिम का सारा इतिहास दो हजार वर्षांे का है। उसके पहले उनके पास कुछ नहीं था। तो एक कारण तो यह है। दूसरा यह है कि हालांकि यह अंग्रेजों के आने के समय से पहले भी था- लेकिन अंग्रेजों के समय तो मैकाले ने खास तौर से यह कहा कि किसी देश की भाषा और संस्कृति मिटा दी जाए तो वह अपने आप गुलाम हो जाता है। इसलिए भारत के लोगों को यह बताओ कि इनका सब कुछ निकृष्ट है। तो अंग्रेजों ने यह बताने का प्रयत्न किया और भारतीयों में जो पढ़ा लिखा वर्ग था वह उनके उस ज्ञान को प्राप्त कर अपने आप को निम्नकोटि का व्यक्ति मानने लगा। तो जब पढ़ा लिखा अपने आपको यह मानता है तो जो अनपढ़ है वह तो और भी उससे नीचे चला गया। जब आपका अपना ही मन हीन भावना से ग्रस्त हो तो आप अपने किस गौरव की बात कर पाएंगे।
हमारे पौराणिक और धार्मिक ग्रंथ जैसे रामायण, महाभारत आदि में केवल पुराकथाएं हैं या उनमें इतिहास, विज्ञान, हमारी सभ्यता के दस्तावेजी तथ्य भी मौजूद हैं?
मौजूद तो सब कुछ है… पढ़ेंगे तब न! ग्रंथ हैं लेकिन आपको वह भाषा ही नहीं आती। मुझे भी नहीं आती। मैंने बड़ी मुश्किल से वाल्मीकि की रामायण, व्यास की महाभारत को अनुवाद के माध्यम से पढ़ा। अब अनुवाद में क्या होता है इसका एक उदाहरण देता हूं। मेरे मन में प्रश्न उठा कि सुभद्रा कृष्ण की सगी बहन थी या नहीं। यानी देवकी की पुत्री थी या नहीं। मेरे एक मित्र ने इस पर काम किया था तो मैंने उनसे पूछा कि आप बताएं। उन्होंने कहा कि मूल महाभारत उठाकर देखो। अगर लिखा है सहोदरा तो सुभद्रा कृष्ण की सगी बहन थी। और अगर लिखा है भगिनी तो उनके पिता की किसी और रानी की पुत्री भी हो सकती है। तो मूल भाषा को जानना और उसके माध्यम से समझना और चीज है। जब हम उस भाषा को जानते नहीं तो गड़बड़ी हो जाती है। जैसे शिवलिंग है। लिंग यानी उसका प्रतीक या पहचान। लिंग का अर्थ शिश्न नहीं है। लेकिन लोगों ने वह माना। दक्षिण में रामालिंगम नाम होता है। इसका मतलब क्या? राम का चिह्न। जैसे हम कहते हैं स्त्रीलिंग पुल्लिंग। तो स्त्री का तो लिंग नहीं होता। फिर इस लिंग का अर्थ क्या है इसको जानने की कोशिश करनी चाहिए। हमारी अपनी मूल समस्या अपनी हीन भावना और अज्ञान है। अगर हीन भावना न हो और आत्मबल हमारे भीतर हो तो हम कुछ जानने का भी प्रयत्न करें और उस पर गर्व भी करें। जब आपके मन में ही आत्मबल नहीं हैं तो आप पहले से सोचे बैठे हैं कि ये सब पोगापंथी, गलत सलत और काल्पनिक है। पुराणों की बात आती है तो मैं उनको पुरा-कथा कहता हूं। उसमें इतिहास आज की शैली में लिखा हुआ नहीं है। मेरा पोता पूछ रहा था कि जब होलिका प्रह्लाद को लेकर अग्नि में बैठी और होलिका दहन हुआ उसके कितने दिन बाद हिरण्यकश्यपु को नृसिंह भगवान ने मारा। इसका कोई जवाब मेरे पास नहीं है। बल्कि कहीं भी नहीं मिलेगा कि कितने दिनों बाद… क्योंकि हमारी वह शैली ही नहीं है। उसमें घटनाओं के संकेत हैं सारे, बाकी आपको समझना चाहिए। हम मानें कि वह झूठ है तो वह सही नहीं होगा। जैसे कृष्ण कथा में है कि कृष्ण के बड़े भाई बलराम का गर्भ धारण किया देवकी ने लेकिन उनका प्रसव किया वासुदेव की दूसरी रानी रोहिणी ने जो नंदगांव में थीं। यानी एक रानी ने गर्भधारण किया फिर दूसरी रानी के गर्भ में आरोपित किया गया। तो रोहिणी बलराम की सरोगेट मदर थीं। तो यह सीधा सीधा सर्जिकल आॅपरेशन है। भ्रूण को एक गर्भ से निकालकर दूसरे गर्भ में स्थापित करना। मैंने अपने उपन्यास ‘वसुदेव’ में उसको इस रूप में लिया। लोग मुझसे पूछते हैं कि क्या उस समय में इस तरह के आॅपरेशन होते थे? …आपके पास इसका क्या प्रमाण है? तो मेरा उत्तर होता था कि आपके पास क्या प्रमाण है कि उस समय ये नहीं होते थे। महाभारत में तो शिखंडिनी के शिखंडी होने के आॅपरेशन का बड़े विस्तार से वर्णन है। वह यक्ष के पास गया उसने किन किन पदार्थांे से मालिश की, कौन कौन दवाएं खिलार्इं- लगार्इं और फिर शल्य चिकित्सा की। लिंग परिवर्तन किया जा रहा है, एक स्त्री को पुरुष बनाया जा रहा है और उसका विस्तृत वर्णन है- तो आपके पास क्या प्रमाण है कि वह गलत है और झूठ बोला जा रहा है। यानी आपने अपने आप ही मान लिया। यह आवश्यक है कि पहले हम अपने ग्रंथों के प्रति अपनी निष्ठा को जगाएं और उसके बाद उसकी खोज करें। और फिर उसको स्थापित करें। तब बात बनेगी। स्थापित करने का तरीका है कि हम अपनी अगली पीढ़ियों को भी बताएं। क्योंकि हमारे यहां और प्राय: हिंदुओं में होता है कि अगली पीढ़ी को तो मंदिर भी नहीं ले जाते। हालांकि वह उतना लाभकारी नहीं है जितना कि आप उनको ज्ञान दें कि हम क्या मानते हैं, करते हैं, हम किस परंपरा के लोग हैं, हमारे पास ज्ञान में क्या क्या है। यह जरूरी है। हालांकि मैं मंदिर जाने का विरोधी नहीं हूं वहां जाना भी जरूरी है क्योंकि जो उस ढंग से ईश्वर को प्राप्त करना चाहते हैं वे जाते हैं। विवेकानंद ने कहा कि शालिग्राम की बटिया से लेकर निर्गुण निराकार ब्रह्म की उपासना जो भी करता है वह सब सत्य है। हम तो बहुत उदार मन से दुनियाभर की जितनी भी पूजा पद्धतियां हो सकती हैं उन सबको स्वीकार करते हैं। हां ऐसा है कि लोग अपने हिंदू होने को छुपाते हैं। आप कहें कि तुम हिंदू हो तो वह अपनी छाती ठोकेगा कि मैं इनसान हूं। अरे इनसान तो सभी हैं लेकिन धर्म उसकी मानवता को और उच्च उभारकर स्वच्छ करता है। हमें मालूम है कि आप जानवर नहीं इनसान हैं लेकिन मानवता को मनुष्यता में स्थापित कौन करेगा- धर्म करेगा।
इस समय अपनी सभ्यता, संस्कृति, पहचान और गौरव को लेकर जो प्रयास हो रहे हैं- इन्हें आप किस रूप में देख रहे हैं?
इस समय मुझे थोड़ी सी सुगबुगाहट दिखती है कि हम क्या थे इसे जरा जानें। जैसे रामसेतु की बात आती है। कांग्रेस सरकार के समय में सुप्रीम कोर्ट में कहा गया कि सब काल्पनिक है। लेकिन नासा वाले उसके प्रमाण दे रहे हैं। फोटो खींचकर तो उन्होंने पहले ही दे दी थी। रामेश्वरम आज भी है। विवेकानंद वहां गए थे। जहां रामेश्वरम है उस जिले का नाम रामनाड है। यानी राम का स्थान। उसके राजा का नाम था भास्कर सेतुपति। तो सेतुपति उपाधि तो सभी हो सकती है जब सेतु हो। अब नासा के वैज्ञानिकों ने कहा कि रामेश्वरम में जो रेत है वह कुछ हजार साल पुरानी है और वहां जो पत्थर रखे गए हैं वे उससे भी पुराने हैं। इसका मतलब है कि पत्थर कहीं और से लाए गए हैं सेतु बनाने के लिए। तो नासा वाले प्रमाणित कर देंगे कि यहां बनाया गया हजारों साल पहले। अब वे राम को तो नहीं जानते इसलिए वे यह नहीं कहेंगे कि राम ने बनवाया। वे कहते हैं कि यह मानव निर्मित सेतु है।
अपनी सभ्यता को लेकर कुछ सुगबुगाहट होती भी है तो अपने ही देश में विदेश से आई संस्कृतियों को लेकर पल रहे लोग जो इस देश के अतीत को जानते भी नहीं हैं और मानना भी नहीं चाहते, वे विरोध में खड़े हो जाते हैं। फिर अपने यहां जो पढ़ा लिखा हिंदू इंटेलेक्चुअल है, वे कम्युुनिस्ट हैं, वे उसका विरोध कर रहे हैं। उनकी हर तरह से कोशिश है कि हिंदुत्व नष्ट हो। अभी अभिनेता कमल हासन ने दक्षिण में राजनीतिक दल बनाया उनका वक्तव्य था कि मैं हिंदुओं का विरोधी नहीं हूं हिंदुत्व का विरोधी हूं। अरे हिंदू जो मानता है वही तो हिंदुत्व है। तो हिंदू तो आप हैं लेकिन हिंदुत्व को नहीं मानेंगे- यह सिवाय अज्ञान और मूर्खता के और कुछ नहीं है। तो हिंदुत्व का इतना तीखा विरोध और हिंदू होते हुए भी खुद को हिंदू नहीं बताना, इस तरह की स्थिति गलत है। विवेकानंद ने कहा था कि मेरे समाज के दोषों को मेरे धर्म पर आरोपित मत करो। समाज में ये दोष तब आए हैं जब उन्होंने धर्म का आचरण बंद कर दिया। हमने गुलामी के पंद्रह सौ वर्ष बिताएं हैं। अब जरा उससे उबरे हैं तो और आगे ही जाएंगे न। कम से कम यह आशा हम सभी को करनी चाहिए।