उमेश चतुर्वेदी
सोनिया गांधी कह रही हैं कि वे 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को सत्ता में लौटने नहीं देंगी। सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता के रूप में उनकी यह उद्घोषणा जायज लगती है। पर चुनावी राजनीति में दावे जमीनी हकीकत के आधार किए जाएं तभी फलीभूत होते हैं। केंद्र की नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार बने करीब चार साल हो रहे हैं। इन चार सालों में दो दूरगामी असर वाले बड़े आर्थिक सुधार के कदम उठाए गए। पहला नोटबंदी का और दूसरा वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी)। दोनों को लागू करने में मुश्किलें आर्इं और बड़ी संख्या में लोगों को दुश्वारी हुई। विपक्षियों ने विधानसभा चुनावों, खासतौर से उत्तर प्रदेश में नोटबंदी को और गुजरात में जीएसटी को चुनाव का बड़ा मुद्दा बनाया। उत्तर प्रदेश में भाजपा को अभूतपूर्व कामयाबी मिली और गुजरात में बाइस साल की एंटी इन्कम्बेंसी के बावजूद सत्ता में बनी रही। पिछले चार साल में भाजपा छह राज्यों से बढ़कर इक्कीस राज्यों में सत्तारूढ़ हो गई। कांग्रेस तेरह से चार पर आ गई। इस जमीनी सचाई से सोनिया गांधी का दावा पोला साबित होता है। सोनिया गांधी की उम्मीद 2004 की तरह गठबंधन पर टिकी है। पर वहां राहुल गांधी का नेतृत्व समस्या बना हुआ है। 2004 में जिस तरह से गैर राजग दलों ने सोनिया गांधी को नेता स्वीकार कर लिया उस तरह से राहुल गांधी का नेतृत्व स्वीकार करने के लिए कोई तैयार नहीं है।
कांग्रेस की चुनौती
आगामी लोकसभा चुनाव के लिए कांग्रेस की सबसे बड़ी तैयारी यह है कि उसे लग रहा है कि जैसे 2004 में बिना कुछ किए गठबंधन के सहारे वह सत्ता में आ गई थी वैसे ही इस बार भी होगा। यही वजह है कि सोनिया गांधी कह रही हैं कि अच्छे दिन का वही हश्र होगा जो वाजपेयी के इंडिया शाइनिंग का हुआ था। उन्हें या तो समझ में नहीं आ रहा या समझना नहीं चाहतीं कि 2004 में कांग्रेस इतनी कमजोर नहीं थी जितनी 2018 में है। उस समय वह राज्यों में या केंद्र में चुनाव हारती थी पर उसका सफाया नहीं होता था। सबसे ताजा उदाहरण त्रिपुरा का है जहां उसका वोट प्रतिशत पैंतीस फीसदी से घटकर डेढ़ फीसदी पर आ गया। उत्तर प्रदेश में दो लोकसभा सीटों के उप चुनाव में उसके उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई। पूर्वोत्तर में असम, अरुणाचल प्रदेश और मणिपुर से वह पहले ही चली गई थी। अब नगालैंड और मेघालय जैसे ईसाई बहुल राज्यों से भी सत्ता से बाहर हो गई। पश्चिम बंगाल में वह तृणमूल तो छोड़िए भाजपा के भी मुकाबले में नहीं है। बिहार में वह लालू प्रसाद यादव की राष्ट्रीय जनता दल के भरोसे है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में उसकी वापसी के आसार नजर नहीं आते। ले देकर एक राजस्थान है जहां लोकसभा चुनाव से पहले उसके लिए अच्छी खबर मिल सकती है। कांग्रेस तो 2014 के मुकाबले भी आज और कमजोर है। महाराष्ट्र जहां वह पंद्रह साल सत्ता में रही अब तीसरे नम्बर की पार्टी है। गुजरात में तो उसे सत्ता देखे हुए अट्ठाइस साल हो गए हैं। जिन राज्यों में उसका भाजपा से सीधा मुकाबला है उनमें से राजस्थान और गुजरात के अलावा वह कहीं लड़ाई में भी नहीं है। मध्य प्रदेश में उसकी स्थिति ज्यादा जोगी मठ उजाड़ वाली है।
गठबंधन के संभावित साथी
कांग्रेस के लिए 2019 में गठबंधन के साथी तलाशने से ज्यादा मुश्किल होगा उन्हें साथ लेना। उसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि जिन राज्यों में उसका संगठन ठीक ठाक है उनमें से ज्यादातर में उसकी सीधी लड़ाई भाजपा से है। उन राज्यों में जैसे गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में कोई तीसरा दल है ही नहीं। आंध्र प्रदेश (अविभाजित) से उसे 2004 और 2009 में सबसे अधिक सीटें मिली थीं। आज वहां वह साफ है। बिहार, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, ओडिशा में वह किसी और दल को कुछ देने की स्थिति में ही नहीं है। गठबंधन के लिए उसके पास जम्मू-कश्मीर, झारखंड, महाराष्ट्र और असम बचते हैं। असम के अलावा पूरे पूर्वोत्तर में सिर्फ मेघालय में उसकी नम्बर दो की हैसियत बची हुई है। आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और हरियाणा में उसके लिए गठबंधन संभव ही नहीं है। ऐसे में चुनाव से पूर्व गठबंधन में कांग्रेस के लिए बहुत ज्यादा गुजाइश नहीं है। पार्टी के लिए गठबंधन का रास्ता चुनाव बाद ही खुल सकता है। वह तब जबकि उसकी लोकसभा सीटों की संख्या कम से कम सौ के ऊपर पहुंचे। जो आज की तारीख में संभव नहीं दिखता। गठबंधन में दूसरी समस्या यह है कि दूसरे कई दलों को राहुल गांधी का नेतृत्व स्वीकार नहीं है।
क्षेत्रीय दलों की राजनीति
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी एक बार फिर विपक्षी एकता के लिए सक्रिय हुई हैं। कांग्रेस के लिए बुरी खबर यह है कि अभी तक ममता की नजर कांग्रेस पर नहीं है। उनकी कोशिश गैर भाजपा और गैर कांग्रेस क्षेत्रीय गठबंधन बनाने की है। इसके लिए वे तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव से बात कर चुकी हैं। अखिलेश यादव और मायावती के भी वे सम्पर्क में हैं। शरद पवार से भी उनकी बात हो रही है। बिना पतवार की नाव बने शरद यादव से ममता बात करने को तैयार हैं। पर राहुल गांधी का नाम नहीं लेतीं। वे सोनिया गांधी से मिलने को अलबत्ता तैयार हैं। ममता बनर्जी की कोशिश एक तरह से राहुल गांधी के नेतृत्व में अविश्वास जताना है। क्षेत्रीय दलों की नजर में कांग्रेस विपक्षी एकता की धुरी बनने की हालत में नहीं है।
इस राजनीतिक पृष्ठभूमि में राहुल गांधी की अध्यक्षता में कांग्रेस का पहला अधिवेशन पिछले दिनों दिल्ली में हुआ। यह संयोग ही है कि नए अध्यक्ष के चुनाव को औपचारिक मंजूरी देने के लिए जिस दिन देश की सबसे पुरानी पार्टी का महाधिवेशन शुरू हुआ, उसके ठीक एक दिन पहले दक्षिण के क्षत्रप नारा चंद्रबाबू नायडू ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से नाता तोड़ लिया। ऐसे में सवाल यह है कि क्या वक्त के साथ अपनी राजनीतिक निष्ठाएं बदलने में माहिर चंद्रबाबू नायडू के अलगाव का फायदा कांग्रेस उठा पाएगी? हालांकि महाधिवेशन में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने जिस तरह सिर्फ और सिर्फ नरेंद्र मोदी पर हमला बोला, उसका संदेश साफ है। संदेश यह कि कांग्रेस सिर्फ और सिर्फ नरेंद्र मोदी को ही निशाना बनाकर सत्ता की राजनीति का वनवास खत्म करने का सपना पाले बैठी है। इसके संकेत एक मीडिया हाउस के कार्यक्रम में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने पहले ही दे दिया था। उन्होंने कहा था कि हम मोदी सरकार की वापसी नहीं होने देंगे।
कांग्रेस के उत्साह की वजह उत्तर प्रदेश के गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा उपचुनावों में समाजवादी पार्टी की जीत है। इन सीटों पर विपक्षी जीत के अपने मायने हैं। गोरखपुर जहां उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का गढ़ रहा है तो फूलपुर से राज्य के उपमुख्यमंत्री केशव मौर्य जीते थे। बेशक दोनों सीटों पर समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन के बाद भाजपा की हार हुई है। इन दोनों ही सीटों पर कांग्रेस विपक्षी गठबंधन का हिस्सा नहीं थी और उसके प्रत्याशियों की जमानत तक जब्त हुई। इसके बावजूद मोदी के पराभव की उम्मीद में उसके खुशी जताने की वजह राजनीतिक हलकों में समझ में नहीं आई।
कांग्रेस महाधिवेशन में उम्मीद की जा रही थी कि कुछ महीने बाद होने वाले कर्नाटक विधानसभा चुनावों के लिए वह स्पष्ट रणनीति बनाएगी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। अलबत्ता राहुल गांधी ने महाधिवेशन के दूसरे दिन यानी 18 मार्च को दिए भाषण में मोदी सरकार पर जिस तरह कौरव-पांडव का हवाला देकर हमला बोला, उससे कार्यकर्ताओं में नया उत्साह जरूर आया। लेकिन यह उत्साह कार्यकर्ताओं के अपने-अपने इलाके में पहुंचने के बाद बना ही रहेगा, इसके लिए जरूरी ठोस रणनीति कांग्रेस महाधिवेशन में नजर नहीं आई।
कर्नाटक में जीत हासिल करने को लेकर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने हर हथकंडा अख्तियार कर रखा है। राज्य की आबादी के करीब 17 फीसद हिस्से वाले लिंगायत समुदाय को धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा देकर कांग्रेस ने अपनी चाल चल दी है। राज्य का यह शैव मतावलंबी समुदाय आमतौर पर भारतीय जनता पार्टी का समर्थक माना जाता है। इस चाल के जरिये कांग्रेस ने कर्नाटक के भारतीय जनता पार्टी के बड़े आधार को तोड़ने की कोशिश की है। कर्नाटक में शिक्षा बड़ा व्यवसाय है और लिंगायत समुदाय के लोगों के पास शैक्षणिक संस्थान हैं। हालांकि कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने लिगायतों को धार्मिक अल्पसंख्यक घोषित कराने की चाल चली है लेकिन इसे केंद्र से मंजूरी मिलने की उम्मीद नहीं है क्योंकि 2013 में केंद्र की यूपीए सरकार इसे खारिज कर चुकी है। हालांकि ऐन चुनावों के ठीक पहले यह कदम उठाने वाली कांग्रेस भूल गई कि निकट अतीत में भी ऐसे हथकंडे कामयाब नहीं हुए। आंध्र प्रदेश से अलग करके तेलंगाना राज्य बनाने का फैसला उसने 2014 के आम चुनावों के ठीक पहले लिया था। लेकिन हालात यह हैं कि तेलंगाना में के चंद्रशेखर राव का बोलबाला है तो आंध्र प्रदेश में तेलुगू देशम और वाईएसआर कांग्रेस का दबदबा है।
आंध्र से तेलंगाना को अलग राज्य बनाने के बाद हुए चुनावों में कांग्रेस को महज 11.7 प्रतिशत वोटों और 22 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा। जबकि 2009 के चुनावों में उसे 36.6 प्रतिशत वोट और विधानसभा में बहुमत हासिल हुआ था। राज्य के अलग होने का फायदा तेलंगाना राष्ट्र समिति उठा ले गई, जिसे 34 प्रतिशत वोट और तेलंगाना इलाके में 63 सीटें हासिल हुर्इं। इसी तरह आंध्र में कांग्रेस से अलग होकर बने दल वाईएसआर कांग्रेस ने कांग्रेस को पछाड़ते हुए आंध्र की 25 लोकसभा सीटों में से आठ पर कब्जा कर लिया, वहीं 176 सदस्यीय विधानसभा में उसके 67 विधायक जीते। जबकि तेलुगू देशम पार्टी के 102 विधायक और लोकसभा में 15 सांसद हैं। इसलिए यह मान लेना कि राहुल गांधी और उनके कन्नड़ क्षत्रप सिद्धारमैया का दांव कामयाब ही होगा, जल्दबाजी होगी।
हालांकि कांग्रेस अधिवेशन में पार्टी की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी ने माना कि पार्टी को लोगों तक पहुंचने की रणनीति बदलने की जरूरत है। वैसे राहुल गांधी जिस तरह के हथकंडे अख्तियार कर रहे हैं, शायद यह कांग्रेस की उसी रणनीति का हिस्सा है। गुजरात विधानसभा चुनावों के पहले उन्होंने मंदिरों में खूब माथा टेका था, इसी तरह अब वे कर्नाटक में भी मंदिर-मंदिर घूम रहे हैं।
कांग्रेस महाधिवेशन को संबोधित करते हुए सोनिया गांधी ने एक बार फिर गठबंधन की ताकत याद दिलाई। उन्होंने 2004 को याद दिलाते हुए कहा कि गठबंधन की ताकत के दम पर भारतीय जनता पार्टी की सरकार को उखाड़ कर फेंक दिया था। लगे हाथों उन्होंने कर्नाटक के चिकमंगलूर में 1978 में हुए उपचुनाव की याद दिलाकर कांग्रेस के कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ाने की कोशिश की, जिसमें उनकी सास इंदिरा गांधी जीतकर आई थीं। सोनिया ने कहा कि इसके बाद देश की राजनीति बदल गई थी और कांग्रेस फिर से ताकतवर बनकर उभरी थी। सोनिया गांधी का यह भाषण बेशक कांग्रेस कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ाने वाला हो, लेकिन यह भी सच है कि 1978 से लेकर अब तक राजनीति बदल गई है। नए तरह के समीकरण उभर आए हैं। सूचना प्रौद्योगिकी के विस्तार और सोशल मीडिया के जबर्दस्त उभार ने राजनीतिक परिदृश्य और आम लोगों की सोच को पूरी तरह बदल कर रख दिया है।
बहरहाल, अपने 133 साल के इतिहास में लगातार चुनावी हार झेल रही कांग्रेस पार्टी के इस महाधिवेशन में भविष्य को लेकर कुछ रणनीतियां बनाई गर्इं तो राहुल गांधी ने कौरव-पांडव के संदर्भ में भाषण देकर अपने कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ाने की जोरदार कवायद की। यह कांग्रेस का 84वां महाधिवेशन था। इसके पहले तक महाधिवेशनों में जहां गद्दे-तकिये लगाए जाते थे, इस बार इसे बदला गया और मंच पर कुर्सियां लगीं। कांग्रेस सूत्रों का कहना है कि कांग्रेस महाधिवेशन में यह बदलाव लाने की कवायद प्रियंका गांधी वाड्रा ने की है। माना जा रहा है कि इसे पार्टी को नई परंपराओं से जोड़ने और नए वर्ग के वोटरों को संदेश देने के साथ ही साथ कांग्रेस के नए नेतृत्व को पारिभाषित करने की कोशिश की गई। सफेद गद्दे पर बुजुर्ग नेताओं के सुशोभित होने की बजाय इस बार कुर्सियों पर युवा नेतृत्व भी बैठा। इसे प्रतीकात्मक बदलाव के तौर पर देखा गया। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा भी कि वह मंच पर देश भर के युवा और प्रतिभावान लोगों को सुशोभित करना चाहते हैं जो भारत को बदलने के लिए फिर से पार्टी को सत्ता में लौटा सकें।
इस महाधिवेशन में ‘विजन 2030’ तथा मीडिया जैसे मुद्दों पर भी चर्चा हुई। इसके अलावा दो लघु फिल्मों की स्क्रीनिंग भी हुई। इनमें से एक में कांग्रेस का इतिहास दिखाया गया था। इस फिल्म के अंत में राहुल गांधी का एक भाषण है, जिसमें वे कहते हैं कि उनकी पार्टी का ‘इंडिया विजन’ ही अमेरिका और चीन के बाद तीसरी दुनिया के दृष्टिकोण को परिभाषित करेगा। दूसरी फिल्म है ‘डरो मत।’ इसमें राहुल गांधी पार्टी कार्यकर्ताओं से अपील कर रहे हैं कि वे बिना डरे एकजुट होकर देश में बदलाव लाने के लिए काम करें। लेकिन सवाल यह है कि क्या सचमुच देश में ऐसी स्थिति है कि कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को डराया जा रहा है। रही बात मीडिया पर चर्चा की तो उस पर चर्चा के दौरान उन्होंने देश में अघोषित आपातकाल और मीडिया को डराने की बात कही। उन्होंने कहा कि अगर उनकी सरकार आई तो मीडिया को भयमुक्त वातावरण मिलेगा। ‘सच्चाई की शक्ति’ नामक परिचर्चा में मीडिया और न्यायपालिका को नियंत्रित करने का कांग्रेस ने आरोप लगाया। इस चर्चा में पार्टी ने कहा कि मीडिया आज गम्भीर संकटों में घिरा हुआ है। सत्ता और संसाधनों के बल पर मीडिया को झुकाया जा रहा है, भयभीत किया जा रहा है और कई समाचारपत्रों एवं न्यूज चैनलों के साथ आर्थिक भेदभाव किया जा रहा है।
इसने सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी को मौका दे दिया। भाजपा की तरफ से रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमन ने कांग्रेस पर हमला बोला। उन्होंने कहा कि राहुल की दादी ने आपातकाल लगाकर प्रेस का गला घोंट दिया और उनके पिता राजीव गांधी विवादित प्रेस बिल लाए थे, फिर वे किस मुंह से मीडिया की आजादी की बात करते हैं।
कांग्रेस महाधिवेशन में पार्टी ने चुनावी रणनीति को ध्यान रखते हुए कृषि, रोजगार और गरीबी उन्मूलन पर विशेष प्रस्ताव पारित किया। कृषि प्रस्ताव को तो एक तरह से किसानों के लिए चुनाव घोषणा पत्र की ही तरह पेश किया। आठ पृष्ठ के इस दस्तावेज में कांग्रेस ने वे कदम बताए हैं, जिन्हें सत्ता में वापसी के बाद वह किसानों के हित में उठाएगी। किसानों को लुभाने के लिए पार्टी ने अपने इस प्रस्ताव में नई बीमा योजना के साथ ही ‘स्थायी किसान एवं कृषि मजदूर कल्याण आयोग’ की स्थापना का वायदा किया है। यह आयोग संवैधानिक हैसियत वाला है। प्रस्ताव में वादा किया है कि कांग्रेस सत्ता में आई तो किसानों के बच्चों को विशेष छात्रवृत्ति दी जाएगी। साथ ही न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने के तरीके की समीक्षा होगी और विशेष कृषि जोन भी स्थापित किए जाएंगे। लेकिन हैरत की बात रही कि इंदिरा गांधी के जमाने से चले आ रहे गरीबी हटाओ जैसे विषय को इसमें स्थान नहीं दिया गया।
कांग्रेस को लगता है कि वह विपक्ष को वामपंथी और समाजवादी झुकाव के साथ ही जोड़ सकती है। कृषि, बेरोजगारी उन्मूलन पर पारित अपने विशेष प्रस्तावों के साथ-साथ आर्थिक प्रस्ताव में पार्टी ने जो संदेश दिया है, उससे जाहिर होता है कि उसका वामपंथी झुकाव में भरोसा बढ़ा है। इन प्रस्तावों में पार्टी ने किसान समर्थक और गरीब समर्थक नीतियों के साथ ही बेरोजगारी और कृषि संकट पर फोकस किया, वहीं आर्थिक नीति में उच्च गुणवत्ता युक्त शिक्षा, स्वास्थ्य एवं सामाजिक सुरक्षा को करोड़ों गरीबों तक मुहैया कराने पर भी फोकस किया है। इसके साथ ही पार्टी ने अपने प्रस्ताव में वादा किया कि सत्ता में वापसी के बाद वह शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और सामाजिक सुरक्षा तंत्र में भारी निवेश कराएगी। ऐसा करते वक्त वह भूल गई कि उसके ही शासनकाल में उदारवादी नीतियों की शुरुआत हुई। जिसने देश के आर्थिक ही नहीं, सामाजिक परिदृश्य को बदलकर रख दिया। आर्थिक प्रस्ताव में कांग्रेस ने बेरोजगारी की चर्चा तो की, लेकिन इससे निबटने के लिए उसने निजी क्षेत्र का सहयोग लेने पर जोर दिया है। इसके लिए उसने कंपनियों और निवेशकों को आर्थिक स्वतंत्रता के साथ ही टैक्स आतंकवाद तथा मुकदमेबाजी से मुक्त करने का वादा किया है। कांग्रेस ने जिस तरह प्रस्ताव पारित किए, उससे लगता है कि वह 2019 में वापसी ही करने जा रही है। शायद यही वजह है कि उसने आर्थिक प्रस्ताव में कहा है कि गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले 30 प्रतिशत लोगों के उत्थान पर विशेष ध्यान दिया जाएगा। गरीबी उन्मूलन के लिए पार्टी राष्ट्रीय राहत कोष का सृजन करेगी और सबसे अमीर भारतीयों पर 5 प्रतिशत उपकर लगाएगी। इस टैक्स राशि को सीधे तौर पर अनुसूचित जातियों व जनजातियों तथा अन्य बी.पी.एल. परिवारों के बच्चों की छात्रवृत्ति के लिए प्रयुक्त किया जाएगा। पार्टी ने कहा है कि इस मामले में उसकी नीति किसी विशेष जाति के पक्ष में नहीं होगी। इसके साथ ही पार्टी ने वादा किया है कि वह अमीर लोगों से पैसा लेकर गरीबों को देगी। एक प्रस्ताव में कांग्रेस ने आरोप लगाया है कि ‘आधार’ नम्बर जरूरी किए जाने से एक वर्ग परेशान है। पार्टी ने मौजूदा सरकार पर आरोप लगाया कि उसने आधार की अवधारणा को ही बिगाड़ दिया है। सशक्तीकरण की बजाय यह अधिकतर मामलों में गरीब लोगों को नियंत्रित रखने या फिर उन्हें आर्थिक प्रक्रिया से बाहर रखने का साधन बन गया है।
आखिर में राहुल गांधी के हिंदुत्व पर दिए भाषण को याद कर लेना चाहिए। इस भाषण से साफ है कि कांग्रेस किस तरह वोटबैंक की राजनीति करेगी। राहुल गांधी ने हिंदू धर्म के बारे में कहा, ‘हिंदुत्व और हिंदू धर्म दो अलग-अलग बातें हैं। आर.एस.एस. और संघ परिवार द्वारा जिस हिंदुत्व की वकालत की जा रही है, वह उन्हें और देश के अन्य कई लोगों को हजम नहीं होता। आर.एस.एस. की व्याख्या अपराधी मानसिकता की उपज है क्योंकि इसके समर्थकों ने उना और अन्य स्थानों पर दलितों की न केवल पिटाई की है बल्कि इसके वीडियो भी पोस्ट किए हैं।’
कांग्रेस की सबसे बड़ी भूल यह है कि वह अटल-आडवाणी और मोदी-शाह की भाजपा का अंतर नहीं समझ रही है। 2014 में एक नई भाजपा का जन्म हुआ, जो अपने विरोधी को एक इंच जमीन देने को तैयार नहीं है। इस मामले में वह दुर्योधन की तरह है। पर लक्ष्य पर उसकी नजर अर्जुन की तरह रहती है। कांग्रेस में परिपक्व राजनीतिक सोच वालों की बड़ी कमी है। यह बात पूर्ण अधिवेशन में पेश प्रस्तावों की गुणवत्ता में नजर आई। यही कारण है कि कोई भी प्रस्ताव चर्चा का कारण नहीं बना। पिछले चार साल में भाजपा एक के बाद एक राज्य जीत रही है और कांग्रेस की हार का सिलसिला थम नहीं रहा है। चार साल में उसे सिर्फ पंजाब से अच्छी खबर मिली है। मोदी शाह के युग में भाजपा चुनाव जीतने की फौलादी मशीन बन चुकी है। कांग्रेस को सिर्फ इक्का दुक्का उप चुनावों की जीत से संतोष करना पड़ रहा है। अगले एक साल में इसमें कोई बड़ा बदलाव होता हुआ तो दिख नहीं रहा।