विजय शंकर चतुर्वेदी
द्रविड़ नायक मुत्तुवेल करुणानिधि (94) का राष्ट्रीय पटल और दक्षिण भारत की राजनीति से ओझल होना उत्तर भारत के लिए जंगल में मोर नाचने जैसी ही खबर रही। भले ही करुणानिधि ने अपनी राजनीतिक उड़ान तीक्ष्ण हिंदी विरोध के पंख लगा कर भरी हो, दिल्ली की राजनीति को कई बार अपनी उंगलियों पर नचाया हो, कई प्रधानमंत्रियों को अपने दर पर नाक रगड़ने के लिए मजबूर कर दिया हो, इंदिरा गांधी द्वारा थोपे गए आपातकाल का विरोध करके अपनी सरकार गंवाई हो, अपने 60 साल के सुदीर्घ राजनीतिक करियर में हर चुनाव में अपनी सीट जीतने (तेरह बार विधायक बने) का रिकॉर्ड बनाया हो, पांच बार मुख्यमंत्री रहे हों और सेतु समुद्रम विवाद में भगवान राम के वजूद पर ही सवाल उठा दिया हो, लेकिन उत्तर भारत में उनसे ज्यादा लोग दक्षिण के फिल्म अभिनेता-अभिनेत्रियों से परिचित हैं। इसे विडंबना नहीं तो और क्या कहा जाए कि कलईनार (कला का विद्वान) करुणानिधि की पार्टी द्रविड़ मुनेत्र कषगम का नाम उच्चारने में ही उत्तर के राजनीतिक लाउडस्पीकरों की जीभ लटपटा जाती है।
हम यहां उत्तर और दक्षिण भारत में हुई या हो रही राजनीति का कोई तुलनात्मक अध्ययन नहीं कर रहे हैं लेकिन आशा अवश्य करते हैं कि भारत की हर दिशा और क्षेत्र के दूरगामी प्रभाव छोड़ने वाले राजनेताओं से गहरा वास्ता रखना चाहिए। यह सच है कि करुणानिधि की राजनीति न सिर्फ उत्तर की दबंगई के विरुद्ध परवान चढ़ी बल्कि तमिलनाडु के ब्राह्मण वर्चस्व को भी उन्होंने ध्वस्त कर दिया था। वह खुद पिछड़े वेल्लालर समुदाय से आते थे जो मंदिरों के बाहर बाजा बजाकर अपना जीवनयापन करता था। उनकी पहली पसंद राजनीति नहीं लेखन था। कम ही लोगों को पता होगा कि करुणानिधि ने कविताएं, चिट्ठियां, फिल्म पटकथाएं, उपन्यास, जीवनी, ऐतिहासिक उपन्यास, नाटक, संवाद, गाने इत्यादि लिखकर तमिल साहित्य में बड़ा योगदान दिया है। उन्होंने तिरुक्कुरल, थोल्काप्पियापूंगा, पूम्बुकर आदि पत्रिकाओं के लिए कुरालोवियम के साथ-साथ कई कविताएं, निबंध और किताबें लिखी थीं। करुणानिधि को महज क्षेत्रीय नेता बताने की कोशिश करना हर हाल में अपनी नाक ऊंची रखने का नायाब उदाहरण है।
उत्तर भारत में दलित-पिछड़ा विमर्श हाल के दशकों की घटना है। डीएमके की सरकारों ने उनके नेतृत्व में द्रविड़ आंदोलन को फलदायक बनाते हुए पिछड़ी जातियों को बहुत पहले ही आरक्षण दे दिया था। यह सिर्फ सरकारी नौकरियों तक ही सीमित नहीं था। आज अगर तमिलनाडु में दलित और पिछड़े अगर राजनीति, समाज, अर्थव्यवस्था और कला जगत में न्यायसंगत हिस्सेदारी कर पा रहे हैं तो इसकी जमीन करुणानिधि की बनाई हुई ही है। जिस सामाजिक न्याय के नाम पर उत्तर भारत के कई नेता कुबेर और मसीहा बन गए उस पर दशकों पहले योजनाबद्ध तरीके से अमल करते हुए उनकी पार्टी ने समाज कल्याण के कार्यक्रमों का तांता लगा दिया था। जो हाथ रिक्शा वाले जयपुर, भोपाल, रायपुर, लखनऊ, पटना जैसे कई छोटे-बड़े उत्तर भारतीय शहरों में नारकीय जीवन बिता रहे हैं करुणानिधि ने तमिलनाडु में उनके लिए वैकल्पिक रोजगार की व्यवस्था करके इस अमानवीय व्यवस्था को ही समाप्त कर दिया था। गरीब और पिछड़े वर्ग के बच्चों क ो शिक्षा के अवसर उपलब्ध करवाना, परिवार के पहले स्नातक को मुफ्त कॉलेज शिक्षा दिलवाना, गरीबों के इलाज के लिए बीमा और महिलाओं को देश में पहली बार संपत्ति का अधिकार दिलवाना करुणानिधि के ही सद्कर्म हैं।
डीएमके के संस्थापक और अपने राजनीतिक गुरु अन्नादुरै द्वारा चलाए गए अनीश्वरवादी और सामाजिक न्याय के आंदोलन को करुणानिधि ने जब तक सही मार्ग पर चलाया तब तक उनको तमिल जनता ने सिर आंखों पर बिठाए रखा। लेकिन बढ़ती उम्र में करुणानिधि को भी धृतराष्ट्र सिंड्रोम ने जकड़ लिया। वह भी भाई-भतीजावाद, वंशवाद, पारिवारिक वर्चस्ववाद के दलदल में धंस गए। उन पर आपराधिक षडयंत्र, धोखाधड़ी, विश्वास हनन और भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे और जेल जाने पर ऐसी बदनामी हुई कि तमिल जनता ने उन्हें हृदय के सिंहासन से उठाकर पटक दिया। उनकी मृत्यु के बाद अब द्रविड़ आंदोलन को वैचारिक और राजनीतिक नेतृत्व देने वाला दूर-दूर तक कोई नजर नहीं आ रहा है।