मृत्युंजय कुमार
अपने मजबूत संगठन की वजह से जानी जानेवाली भाजपा उत्तर प्रदेश में संगठन के स्तर पर भी अपनी प्रतिद्वंदी पार्टियों से काफी पीछे है। इसकी निचले स्तर की करीब आधी इकाइयां या तो भंग हैं या निष्क्रिय। प्रदेश की मौजूदा कार्यकारिणी भी काम नहीं कर रही और नई का चुनाव नहीं हो पाया है। सबसे ज्यादा उधेड़बुन तो प्रदेश अध्यक्ष को लेकर चल रही है। कभी कुर्मी समुदाय के स्वतंत्रदेव सिंह तो कभी लोध नेता धरमपाल सिंह का नाम चलता है तो कभी दिनेश शर्मा और कलराज मिश्र का नाम सामने आ जाता है। यह स्थिति मौजूदा अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी को भी सहजता से काम नहीं करने देती है।
केंद्रीय नेतृत्व भी लगातार इस पर मंथन कर रहा है कि जातिगत समीकरण के लिहाज से किस जाति के नेता को पार्टी की कमान दी जाए और किस जाति के नेता को विधानसभा चुनाव में चेहरा बनाया जाए ताकि संतुलन बना रहे। सात फरवरी को दिल्ली में अमित शाह के साथ प्रदेश भाजपा के प्रभारी ओमप्रकाश माथुर, संगठन महामंत्री सुनील बंसल, सह प्रभारी शिवप्रकाश और प्रदेश के कुछ बड़े नेताओं के साथ बैठक में भी कुछ नतीजा नहीं निकला। उल्टे स्मृति इरानी का नाम पार्टी के चेहरे के तौर पर खबरों में आ गया। आठ फरवरी को एक कार्यक्रम के बहाने लखनऊ पहुंचे केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी पार्टी आफिस में पदाधिकारियों और नेताओं से फीडबैक लेते रहे। वहां उन्हें कहा गया कि अभी की स्थिति में भाजपा स्पष्ट रूप से तीसरे नंबर की पार्टी है और पंचायत स्तर तक गुटबाजी में फंसी है। वैसे सच तो यह है कि यूपी में पार्टी की हालत देखते हुए केंद्र में मंत्री बना कोई नेता वहां की जिम्मेदारी नहीं लेना चाहता। मेरठ के हिंदूवादी कार्यकर्ता संजय सिंह कहते हैं कि वैसे भी केंद्र में मंत्री बने नेता जनता से कट गए हैं, इनके स्टाफ तक लोगों की बात नहीं सुनते। अगर इन्हें आगे किया गया तो इनकी नाराजगी पूरी पार्टी पर भारी पड़ेगी।
बिहार और उससे पहले दिल्ली की हार के बावजूद भाजपा नेता अधिकारिक तौर पर लोकसभा के जनादेश का दंभ भरने से नहीं चूकते। लेकिन लोकसभा चुनाव से पहले भी भाजपा यूपी में मजबूत नहीं थी और लोकसभा चुनाव के बाद हुए शक्ति परीक्षणों में भी कहीं मजबूत नजर नहीं आई। पंचायत चुनावों ने इस स्थिति को और खराब कर दिया है। उसके कार्यकर्ता एक दूसरे से अभी तक लड़ रहे हैं।
पंचायत चुनाव से भाजपा गांवों में मजबूत हुई
भाजपा का परफॉर्मेंस पंचायत चुनाव में सकारात्मक रहा है। सपा और बसपा ने प्रत्याशी घोषित नहीं किए थे। 3200 में से भाजपा ने 2800 प्रत्याशी घोषित किए थे। इसमें 568 जिला पंचायत सदस्य भाजपा के जीते। 367 पर भाजपा दूसरे नंबर पर रही और 200 से 300 वोट से हारी। इस 367 के अलावा अन्य करीब 800 सीटों पर भाजपा दूसरे नंबर पर रही। यानी करीब 1167 सीटों पर भाजपा दूसरे नंबर पर रही। अगर आप जीते 568 और दूसरे नंबर पर रही सीटों को जोड़ दें तो हमारा परफॉर्मेंस खराब कैसे रहा?
पहली बार भाजपा गांव में जाकर चुनाव लड़ती है और 50 फीसदी से ज्यादा सीटों पर अच्छा प्रदर्शन करती है। हम हारे या जीते, इससे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि इसके कारण गांव स्तर पर हर जाति बिरादरी में हमारी लीडरशिप खड़ी होती है। यह हमारे लिए सकारात्मक है। यही हमारा उद्देश्य भी था। भाजपा पहले शहरों में नगर निगम के चुनाव लड़ती थी। पहले कभी पंचायत चुनाव नहीं लड़ी। सोच समझकर यह फैसला किया कि भाजपा को अगर खड़ा करना है तो गांवों में मजबूत करना होगा। अगर हम चुनाव नहीं लड़ेंगे तो मजबूत कैसे होंगे। मेरा मानना है कि भले ही भाजपा के प्रत्याशी को दो-तीन हजार वोट मिले हों पर भाजपा का एक नेता तो खड़ा हो गया।
यह मीडिया परसेप्शन बनाया गया कि भाजपा चुनाव हार गई या चुनाव में जाकर गलती की। हां, यह मैं मानता हूं कि हमारे जो लोग बात रखनेवाले हैं, वो लोग इस बात को ठीक ढंग से नहीं रख पाए।
पंचायत चुनाव का नेगेटिव भी है। नेगेटिव यह है कि चार कार्यकर्ता टिकट मांग रहे थे, एक को मिला तो तीन अन्य नाराज हो गए। लेकिन यह शहरों में भी होता है और विधानसभा, लोकसभा, हर चुनाव में होता है। दस कार्यकर्ता टिकट मांग रहे होते हैं और एक को मिलता है। राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश कई राज्य हैं, जहां पंचायत चुनाव पार्टी टिकट पर लड़े जाते हैं। भैरोसिंह शेखावत ने 90 से राजस्थान में पंचायत चुनाव लड़वाना शुरू किया था, जिसकी वजह से भाजपा वहां गांवों में मजबूत हुई थी। इस प्रक्रिया में समय लग सकता है लेकिन धीरे-धीरे मजबूती आती है।जहां तक सांसदों की निष्क्रियता की बात की जा रही है। मैं कहूंगा कि सपा के 220 विधायक हैं, क्या उनकी एंटी इनकंबेंसी नहीं होगी? क्या कांग्रेस, बसपा के विधायकों की एंटीइनकंबेंसी नहीं होगी? इस पर भी चर्चा होनी चाहिए। सिर्फ भाजपा के सांसदों की एंटी इनकंबेंसी क्यों होगी?
सांसदों की भूमिका
उत्तर प्रदेश में 73 सांसद भाजपा के हैं। इस आंकड़े के हिसाब से अगर ये अपने क्षेत्र की आधी सीटें भी पार्टी को दिला पाए तो प्रदेश में भाजपा की स्थिति सुधर जाएगी। लेकिन ऐसा होता नहीं दिख रहा। अध्यक्ष पद के एक दावेदार नाम न छापने की शर्त के साथ कहते हैं कि प्रदेश की सपा सरकार से जितनी नाराजगी नहीं है उससे ज्यादा लोगों में अपने सांसदों के व्यवहार और निष्क्रियता से है। अगर भाजपा विधानसभा चुनाव में अच्छा नहीं करेगी तो उसका बड़ा कारण प्रत्याशी से ज्यादा सांसदों से नाराजगी होगी। इस बार अधिकतर भाजपा सांसद ऐसे लोग हैं जिनका राजनीतिक अनुभव नहीं के बराबर है। मोदी लहर में वे चुनाव जीतकर आ गए। लेकिन अभी तक जनता के साथ वे सहज नहीं हो पाए हैं। पूर्वांचल के पहली बार चुने गए एक सांसद तो साफ साफ कहते भी हैं कि टिकट जनता ने थोड़े ही दिया था। इसलिए वह ज्यादातर दिल्ली ही रहते हैं और सुबह से शाम तक मंत्रियों और संघ के नेताओं के चक्कर काटते रहते हैं। कई तो अपने परिजनों को विधानसभा चुनाव लड़ाने के लिए अभी लाबिंग करने में और संभावित दूसरे दावेदारों को निपटवाने में जुटे हैं।
असम में सोनोवाल को मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करने के बाद साफ है कि भाजपा उत्तर प्रदेश में भी यही नीति अपनाएगी। लेकिन किसे आगे करेगी, इसे लेकर खींचतान चल रही है। उत्तर प्रदेश से आनेवालों में सबसे बड़ा नाम केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह का है। वे दो बार राष्ट्रीय अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। लेकिन वे केंद्रीय राजनीति में अपनी भूमिका से संतुष्ट हैं और यूपी की राजनीति में वापस नहीं जाना चाहते। इसके बाद केंद्रीय मंत्रियों में से कलराज मिश्र, उमा भारती, स्मृति ईरानी का नाम आता है। वैसे रेल राज्यमंत्री मनोज सिन्हा, पर्यटन राज्यमंत्री महेश शर्मा का भी नाम गाहे बगाहे उछाल दिया जाता है। गैर मंत्रियों में सबसे मजबूत नाम गोरखपुर से सांसद योगी आदित्यनाथ का है। स्मृति ईरानी को चेहरा बनाने की बात पर दिल्ली राष्ट्रीय कार्यालय में आए एक पूर्व विधायक कहते हैं कि इससे दिल्ली जैसा मैसेज जाएगा कि प्रदेश में भाजपा के पास कोई लायक नेता नहीं है और चुनाव से पहले ही पार्टी हार जाएगी। कलराज मिश्र पहले भी आजमाए जा चुके हैं।
चुनाव की तैयारी
पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा की हार का सबसे बड़ा कारण देर से प्रत्याशियों की घोषणा थी। ऊपरी स्तर पर खींचतान के कारण कई प्रत्याशी तो मात्र 15 दिन पहले घोषित किए गए। जबकि सपा और बसपा ने अपने प्रत्याशी करीब एक साल पहले घोषित कर दिए थे और स्थानीय स्तर पर आनेवाली समस्याओं का समाधान भी कर लिया था। इस बार भी सपा के प्रत्याशी लगभग तय हैं। बसपा में संभावित प्रत्याशियों के नामों पर चर्चा चल रही है। लेकिन भाजपा तो प्रत्याशियों के चयन की चर्चा की स्थिति में भी नहीं है। बुंदेलखंड क्षेत्र के अध्यक्ष बाबूराम निषाद कहते हैं कि प्रत्याशियों को घोषणा पहले होने से उन्हें संपर्क करने का समय मिल जाता है। वैसे हमारा नेतृत्व प्रबुद्ध है और सही फैसला लेने में सक्षम है।
यह तब है जब केंद्र की मोदी सरकार को राज्यसभा में अपनी संख्या बढ़ाने और राष्ट्रपति चुनाव में अपने प्रत्याशी को जितवाने के लिए उत्तर प्रदेश में जीत की सख्त जरूरत है।
सपा मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में फिर से माई (मुसलमान, यादव) फैक्टर पर दांव लगाने की तैयारी में है तो मायावती को भरोसा है कि लोकसभा चुनाव में भाजपा की ओर गया दलित वापस बसपा में आ चुका है। लेकिन भाजपा दावे के साथ किसी भी जाति के अपने साथ होने का दावा करने की स्थिति में नहीं है। हालांकि उसकी उम्मीद सवर्णों के साथ गैर जाटव दलित और गैर यादव पिछड़ी जातियों पर टिकी है। यूपी भाजपा के प्रवक्ता हरीश श्रीवास्तव कहते हैं कि भाजपा जाति की राजनीति पर भरोसा नहीं करती है, वह सभी वर्गों को साथ लेकर चलती है। पर जिस तरीके से पार्टी पिछड़े और अगड़े अध्यक्ष को चुनने पर उलझी हुई है और जातीय आधार पर कार्यक्रम करने में लगी है उससे यह बात सिर्फ कहने सुनने को ही लगती है। अमित शाह 24 फरवरी को बहराइच में राजा सुहेल देव की स्मृति में एक कार्यक्रम में हिस्सा लेंगे। दरअसल, 11वीं शताब्दी के राजा सुहेल देव पासी समाज के प्रमुख प्रतीक हैं। राज्य की करीब दलित आबादी में पासी दूसरी सबसे बड़ी उपजाति है। बसपा ने सरकार बनने पर राज्य भर में कई जगह राजा सुहेल देव की प्रतिमाओं की स्थापना की थी। बीजेपी भी मानती है कि इस्लामी आक्रमणकारियों को खदेड़ने में राजा सुहेल देव की भूमिका महत्वपूर्ण थी।