एससी/एसटी एक्ट में बदलाव को किस रूप में लेते हैं?
अनुसूचित जाति और जनजाति कानून में जो भी बदलाव हुआ है वह बेहतरी के लिए हुआ है। इसमें क्षतिपूर्ति राशि बढ़ाई गई है। तो हम मानते हैं कि यह बदलाव की एक शुरुआत है।
यानी आगे के लिए भी खाका आपके पास है?
आगे अभीबहुत कुछ होना है जिसके लिए हम सब लोग लगे हुए हैं। जैसे एक स्कीम है अनुसूचित जाति/जनजाति उपयोजना। इसके तहत हर विभाग में बजट का एक हिस्सा एससी/एसटी के लिए उनकी जनसंख्या के हिसाब से रखा जाता है। हम चाहते हैं कि उसका एक केंद्रीय कानून बन जाए। अभीपैसा दूसरे मदों में खर्च हो जाता है। शेड्यूल्ड कास्ट सबप्लान के पैसे के दुरुपयोग को रोकने के लिए एक दुरुस्त केंद्रीय कानून बन जाए इस बात पर हम सब लगे हुए हैं। अगर ऐसा कानून बनता है तो वह एक बहुत बड़ा कल्याणकारी योगदान होगा। अभीऐसा कानून केवल आंध्र प्रदेश में है। वह राज्य स्तर का कानून है। हम चाहते हैं कि ऐसा एक राष्ट्रीय कानून बन जाए जो पूरे देश में लागू हो।
नया कानून कितना कारगर होगा?
आप देख रहे हैं कि एक्ट भीहै और फैक्ट भीहै। तो एक्ट बनने से एससी/एसटी पर ज्यादतियां सब खत्म हो जाएं ऐसा कभीहोता नहीं है। संविधान में अनुच्छेद सत्रह जोड़ दिया गया और छुआछूत खत्म हो गई, ऐसा हुआ है क्या? फिर भीएक्ट एक हद तक सहायता करता है। इसीलिए मैं कहता हूं कि सामाजिक प्रयास भीहोने चाहिए। सरकारी प्रयास हों और उनके साथ ही सामाजिक प्रयास भीहों तभीहमारे समाज की समस्याएं खत्म हो सकती हैं।
नया कानून सामाजिक समरसता बढ़ाएगा या वैमनस्य?
देखिए शेष समाज ने, उसे चाहे सवर्ण समाज कहें या पिछड़ा समाज कहें, इस बात को स्वीकार कर लिया है कि विशेष प्रावधान के तहत एससी/एसटी की सुरक्षा सुनिश्चित होनी चाहिए। इसलिए मैं नहीं मानता हूं कि इससे समाज में टेंशन बढ़ेगा। समाज मान चुका है कि एससी/एसटी की कुछ आवश्यकताएं हैं। उसके लिए सामाजिक और आर्थिक प्रयास होने चाहिए। इससे कोई वैमनस्य नहीं बढ़ने वाला है। इससे समाज में सहानुभूति और सद्भावना ही बढ़ेगी।
कई नई बातें जैसे धमकाने का आरोप भी अपराध की श्रेणी में आ गया है। तो इनका सामाजिक असर क्या पड़ेगा?
अभीतक जो भी एक्ट लागू हुआ उसमें ऐसे अपराधों में कन्विक्शन रेट ज्यादा से ज्यादा तीन प्रतिशत तक रहा है। सौ में से सत्तानवे मामलों में तो लोग छूट ही जाते हैं। ऐसी कोई आशंका किसी को है भी तो अगर केस में दम नहीं होगा, एससी/एसटी का सदस्य कोई झूठा मामला बनाता है तो कन्विक्शन रेट और कम हो जाएगा। कोई झूठ बोलकर, व्यर्थ दोषारोपण करके ऐसा करता है तो एक्ट की फजीहत और समाज की बदनामी होगी। एससी/एसटी एक्ट का दुरुपयोग भीकिया है कुछ लोगों ने यह बात हम मानते हैं। लेकिन अगर आगे भीदुरुपयोग होता रहेगा तो आप समझिए कि बिल्कुल अप्रासंगिक हो जाएगा वह एक्ट।
वैसे भीइस एक्ट का इस्तेमाल बहुत कम लोग करते हैं। गांव के लोग तो कर ही नहीं पाते हैं। इसका अधिकतर इस्तेमाल संगठित क्षेत्र या आर्गनाइज सेक्टर में जो कर्मचारी हैं, वही करते हैं। इसलिए इससे बहुत कुछ बात बनती नहीं। थोड़ा कभीकिसी को परेशानी होती है लेकिन अंतत: कोई कानून के तहत किसी पर निराधार आरोप लगाता है तो फिर उसकी तीव्र प्रतिक्रिया होती है।
दलितों के उत्थान में क्या कानूनी प्रावधानों के अलावा अन्य प्रयासों का भी योगदान रहा है?
मैं मानता हूं कि आज समाज में बहुत से सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक प्रयास चल रहे हैं। अब राजनीतिक प्रयासों को ही लें तो संसद, राज्य विधानसभाओं और पंचायतों में एससी/एसटी के प्रतिनिधि चुनकर आते हैं। उससे जो सामाजिक समरसता और सद्भावना बनी है वह एक्ट से नहीं बनी है। राजनीतिक प्रयास, सामाजिक प्रयास और सांस्कृतिक प्रयास तीनों जरूरी हैं देश में दलितों को मुख्यधारा में लाने के लिए। जैसे सहभोज का कार्यक्रम। कुंभ में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने प्रतीकात्मक ही सही लेकिन अगर दलित साधु–संतों के साथ स्नान किया तो बड़ी बात है यह। ये सामाजिक और धार्मिक प्रयास हैं। और आर्थिक प्रयास अभीचल रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चला रहे हैं। जैसे स्टैंडअप इंडिया और स्टार्टअप इंडिया। इनसे दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों को जो मदद मिल रही है, वो आर्थिक प्रयास हैं। कानूनी प्रयास से ज्यादा सोशल और कल्चरल प्रयास जरूरी है। सामाजिक संस्थाओं के प्रयास भीकाफी कारगर रहे हैं।
एससी/एसटी के नए कानून के राजनीतिक परिणाम क्या होंगे?
राजनीतिक परिणाम की बात करें तो जो सरकार इस काम को करने के लिए तैयार रहती है या जिस सरकार को इसका श्रेय मिलता है वह चाहे किसी भीपार्टी की हो उसको लाभ मिलता ही है। राजनीतिक प्रतिफल तो मिलना ही है अगर किसी समाज का हित हो गया तो। जैसे किसान हैं। अगर सरकार ने उनके लिए कुछ अच्छा किया तो उस सरकार में जो जो पार्टियां होती हैं उनको लाभ होता है। इसी तरह अगर बीजेपी की अगुआई में चल रही एनडीए की सरकार के कामों से दलित समाज को लाभ मिल रहा है तो सरकार में शामिल पार्टियों को लाभ तो होगा न चुनाव में।
ऐसे कदमों से दलितों की स्थिति में क्या बड़ा परिवर्तन हो सकता है?
जो कॉस्मेटिक चेंज होता है उससे बहुत बात बनने वाली नहीं है। मैं भाजपा का नेता रहा हूं। तो अगर बहुत आलंकारिक और श्रृंगारिक ढंग से कोई बात हम कहें और उससे कोई बड़ी बात यानी बुनियादी बदलाव हो जाए तो यह संभव नहीं है।
तो दलितों की दशा में बुनियादी बदलाव के लिए क्या करना होगा?
बुनियादी बदलाव के लिए कुछ बुनियादी परिवर्तन करने होंगे। और उसके लिए समाज को तैयार होना पड़ेगा। हम कह लें कि कुछ देने से, खैरात बांटने से, दयाभाव करने से या कुछ लोगों की मदद करने से बात बन जाएगी तो गलत है। बुनियादी बदलाव यह है कि समाज विशेष आगे बढ़े और जिस बड़े समाज में वह रह रहा है वह भीआगे बढ़े। एससी/एसटी आगे बढ़े और पूरा समाज आगे बढ़े, देश आगे बढ़े उसमें हम लोगों का भला है। किसी को हम सरकार के भरोसे बिल्कुल परावलंबी बना दें तो वह भीठीक नहीं है। सरकार पर बहुत ज्यादा अवलंबित होना किसी के लिए भीअच्छी बात नहीं है। हम लोग चाहते हैं कि सरकार के चलाए कार्यक्रमों में अब हर एक व्यक्ति का योगदान हो। अब सरकार में नौकरियां खत्म हो रही हैं। तो सरकारी नौकरियों में आरक्षण रहने का बहुत लाभ नहीं है। नौकरियां ही खत्म हो रही हैं तो आरक्षण कहां से मिलेगा। अब तो एससी/एसटी और बाकी सभीलोग स्वरोजगार, स्वव्यवसाय में आएं यही एक रास्ता है। लोग अपने अपने काम में लगें। छोटे ही ढंग से सही लेकिन लगना चाहिए।
सरकारी प्रयास तो हैं ही लेकिन गैर सरकारी प्रयास भीउतने ही महत्वपूर्ण हैं समाज और पूरे देश के विकास के लिए। मेरा कहना है कि अनुसूचित जाति और जनजाति समाज को अपने भीतर से भीकुछ सुधारात्मक प्रयास करने चाहिए। जैसे एससी/एसटी के जो लोग तीन तीन पीढ़ी तक आरक्षण की सुविधा का लाभ उठा चुके हैं उन्हें अब उस दायरे से बाहर आना चाहिए। उसकी जगह ऐसे परिवारों को आगे लाना चाहिए जिनकी एक भीपीढ़ी ने अभीतक आरक्षण का लाभ नहीं लिया है। जो आरक्षित वर्ग है उसके भीतर भीकुछ परिवर्तन होना चाहिए चाहे वह वैचारिक तौर पर हो कुछ अभियान के रूप में हो। जो वर्ग इलीट हो गया उसे आरक्षण खुद ब खुद छोड़ना चाहिए और उन क्षेत्रों में जाना चाहिए जहां पर अभीतक उनकी भागीदारी नहीं है। जो तीन पीढ़ी तक आरक्षण ले चुके हैं वे जुडीशियरी में जाएं, एडवोकेसी में जाएं, बिजनेस में जाएं, इंडस्ट्रीज में जाएं। और शिक्षा और नौकरी में आरक्षण छोड़ दें पहली पीढ़ी के लिए। मैं चेतना में परिवर्तन के इस काम को अपने समाज के भीतर ही कर रहा हूं। और यह सही है कि इसके लिए हमें अपने ही कुछ लोगों का विरोध भीसहना पड़ रहा है पर हम जीजान से लगे हुए हैं। इसीलिए मैं कह रहा हूं कि सरकारी प्रयास भीचलें और सामाजिक प्रयास भीचलें। यह सामाजिक प्रयास है हम लोगों का। और इसे मैंने पहले खुद से शुरू किया। जैसे 2004 में ही मैंने कह दिया था कि मैं किसी रिजर्व यानी अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए सुरक्षित सीट से चुनाव नहीं लडूंगा। अब हम तीसरी पीढ़ी के लोग हैं और प्रोफेसर रह लिए इसलिए अब आरक्षण का लाभ लेना उचित नहीं है। इन सामाजिक प्रयासों को समाज को नोटिस लेना चाहिए। ठीक है कि मैं अभीसदन से बाहर हूं लेकिन हमारे समाज का ही एक बड़ा तबका यह महसूस करता है कि संजय पासवान ने जो कहा वह किया। उससे उन्हें भीप्रेरणा मिलेगी। यह बड़ी बात है। शेड्यूल्ड कास्ट के भीतर और अन्य समाज की ओर से भीसामाजिक प्रयास चलते रहने चाहिए। इससे बदलाव जल्दी होता है और वह बुनियादी होता है।