दिल्ली की सात लोकसभा सीटों के लिए 12 मई को मतदान होना है. आंदोलन से राजनीति का सफर तय करने वाली आम आदमी पार्टी के लिए यह चुनाव काफी महत्वपूर्ण है. सात-आठ महीने बाद यहां विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. अगर अरविंद केजरीवाल को लोकसभा चुनाव में झटका लगता है, तो विधानसभा चुनाव की उनकी तैयारियां प्रभावित होंगी और उसका गंभीर मनोवैज्ञानिक असर देखने को मिलेगा. यही कारण है कि सात सीटों के इस संग्राम को विधानसभा की 70 सीटों के लिए होने वाले महासंग्राम के पूर्वाभ्यास के तौर पर देखा जा रहा है.
दिल्ली की कुर्सी पर बैठने की तैयारी जोर-शोर से चल रही है. चुनाव का शोर धीरे-धीरे तेज हो रहा है. हर दौर के मतदान के बाद राजनीतिक दल अगले चरण के चुनाव की तैयारियों में जुटने लगते हैं. दिल्ली की सात सीटों पर कब्जा करने के लिए रणनीति बनाई जा रही है, लेकिन यहां राजनीतिक दलों के लिए लोकसभा की सात सीटों पर अपनी मजबूत स्थिति दिखाना इसलिए भी जरूरी है कि अगले 7-8 महीनों में दिल्ली विधानसभा के चुनाव होने हैं. दिल्ली की इन सात लोकसभा सीटों पर विभिन्न राजनीतिक दलों का प्रदर्शन आगामी विधानसभा चुनाव की दिशा तय करेगा. इन सात सीटों पर जीत-हार से विधानसभा चुनाव के संभावित परिणाम का आकलन किया जाएगा. यही कारण है कि एक ओर जहां आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की मांग को अपना सबसे बड़ा हथियार बनाया है, वहीं कांग्रेस नाराज मतदाताओं को फिर से अपनी ओर वापस लाने के लिए जद्दोजहद कर रही है. भारतीय जनता पार्टी साल 2014 में हुए लोकसभा चुनाव के प्रदर्शन को दोहराने के लिए स्थितियों पर गहराई से नजर रखे हुए है और येन-केन-प्रकारेण यहां की सभी सात सीटों पर अपनी जीत पक्की करने की रणनीति पर काम कर रही है.
दरअसल, दिल्ली में लोकसभा चुनाव की पूरी रणनीति अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखकर तैयार की जा रही है. आम आदमी पार्टी ने पिछले विधानसभा चुनाव में ऐतिहासिक बहुमत हासिल किया था. केजरीवाल को दिल्ली की 70 में से 67 सीटों पर जीत मिली थी और कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया था. भारतीय जनता पार्टी भी केवल तीन सीटों पर जीत हासिल कर सकी थी. लोकसभा चुनाव में जीत-हार का बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक असर अगले विधानसभा चुनाव में दिखने वाला है. अरविंद केजरीवाल को यह पता है कि अगर पिछले लोकसभा चुनाव की तरह दिल्ली की सात में से एक भी सीट उनके खाते में नहीं आई और केंद्र में भाजपा की सरकार बन गई, तो विधासभा चुनाव के दौरान उन्हें लोगों को अपने पक्ष में समर्थन करने के लिए समझाना बहुत मुश्किल हो जाएगा. आम आदमी पार्टी के लिए यह अस्तित्व की लड़ाई है. दिल्ली के अलावा किसी अन्य राज्य में आम आदमी पार्टी की स्थिति मजबूत नहीं है. हालांकि, पिछले लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी ने पंजाब में चार सीटों पर जीत हासिल की थी, लेकिन कुछ महीनों के भीतर ही वहां पार्टी में फूट पडऩी शुरू हो गई. पंजाब में आम आदमी पार्टी के चार सांसदों में से दो ने केंद्रीय नेतृत्व के खिलाफ बगावत शुरू कर दी और फिर वे अलग हो गए. पंजाब विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को बड़ी उम्मीद थी, उसकी शुरुआत भी अच्छी हुई, लेकिन सरकार बनाने लायक समर्थन न मिलने के चलते वह निराश हो गई. पंजाब विधानसभा की 117 सीटों में से केवल 20 सीटें पाने वाली आम आदमी पार्टी के 11 विधायकों ने केंद्रीय नेतृत्व के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है. लिहाजा वहां भी आम आदमी पार्टी की स्थिति मजबूत नहीं है. अब केजरीवाल के लिए दिल्ली में अपनी पार्टी का अस्तित्व बनाए रखना सबसे बड़ी चुनौती है.
जहां तक कांग्रेस का सवाल है, तो बुरी तरह से हार का सामना कर रही कांग्रेस के लिए जीतने से ज्यादा अपना आधार बढ़ाने की चुनौती है. कांग्रेस को पता है कि इस लोकसभा चुनाव में उसका कुछ नहीं होने वाला, वह सरकार बनाने की स्थिति तक नहीं पहुंचेगी. लेकिन, दिल्ली की सात लोकसभा सीटों पर उसका प्रदर्शन विधानसभा के लिए आधार तैयार करेगा. अगर कांग्रेस अपना वोट बैंक बढ़ा लेती है, तो दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान उसका मनोबल ऊंचा रहेगा. ऐसे में दिल्ली की सात सीटों के लिए होने वाले लोकसभा चुनाव से ज्यादा उसे विधानसभा चुनाव के प्रदर्शन पर ध्यान देना है. भारतीय जनता पार्टी के लिए अगले साल होने वाले विधानसभा से ज्यादा महत्वपूर्ण लोकसभा की सातों सीटों पर जीत हासिल करना है. भाजपा को अपना प्रदर्शन दोहराने की चिंता है. इस चुनाव में भाजपा की सरकार बनने की उम्मीद ज्यादा है, लेकिन उसकी सीटें घटने की आशंका को भी खारिज नहीं किया जा सकता. इसलिए भाजपा एक-एक सीट जीतने के लिए अपना पूरा जोर लगाने में जुटी हुई है. उत्तर प्रदेश में संभावित नुकसान को पूरा करने के लिए वह पश्चिम बंगाल, ओडिशा और दक्षिण भारत के राज्यों में अपनी सीटें बढ़ाने की रणनीति पर काम कर रही है. लेकिन, इसके साथ-साथ वह दूसरे प्रदेशों में अपनी जीती हुई सीटें किसी भी कीमत पर गंवाना नहीं चाहती.
दिल्ली में भाजपा का आधार कांग्रेस और आम आदमी पार्टी से बड़ा है. पिछले चुनाव में भाजपा को अकेले 46 प्रतिशत वोट मिले थे, जबकि आम आदमी पार्टी को 32 और कांग्रेस को केवल 15 प्रतिशत वोट मिले थे. हालांकि, इसके बाद हुए दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा था. इसके बाद उसने दिल्ली में अपना समर्थन बढ़ाया और विधानसभा चुनाव के केवल दो साल बाद हुए एमसीडी चुनाव में बड़ी जीत हासिल की. इसलिए उसका मनोबल बढ़ा हुआ है, लेकिन २०१४ में दिल्ली की सभी लोकसभा सीटों पर जीत हासिल करने वाली भाजपा के लिए अपना पिछला प्रदर्शन दोहराना एक बड़ी चुनौती है. उसे चिंता यहां की चार या पांच सीटों पर जीत हासिल करने की नहीं, बल्कि सभी सातों सीटों पर कब्जा करने की है. यानी भाजपा, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी, तीनों के सामने इस चुनाव में बेहतर प्रदर्शन करने की चुनौती है.
लोकसभा चुनाव 2014 (वोट प्रतिशत)
सीट भाजपा आप कांग्रेस
नई दिल्ली 46.73 29.96 18.85
चांदनी चौक 44.58 30.71 17.94
पूर्वी दिल्ली 47.83 31.91 16.99
उत्तर-पूर्व दिल्ली 45.25 34.31 16.31
उत्तर-पश्चिम दिल्ली 46.45 38.57 11.61
पश्चिमी दिल्ली 48.30 28.38 14.33
दक्षिणी दिल्ली 45.17 35.46 11.36
मुस्लिम वोट चाहिए प्रतिनिधि नहीं
दिल्ली की सातों सीटों पर मुस्लिमों की अच्छी-खासी संख्या है. उत्तर पूर्वी दिल्ली सीट पर तो करीब 27 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता हैं. सभी पार्टियों को इनका वोट चाहिए. मुस्लिम मतदाताओं को लुभाने के लिए कई वादे तो किए जाते हैं, लेकिन पार्टियों को मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने वाले नेता नहीं चाहिए. आम आदमी पार्टी ने सातों सीटों पर अपने उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है, लेकिन उनमें एक भी मुस्लिम नहीं है. कांग्रेस ने भी किसी मुस्लिम उम्मीदवार को मैदान में नहीं उतारा है. हालांकि, कांग्रेस के कुछ नेताओं ने पार्टी हाईकमान को पत्र लिखकर मांग की थी कि कम से कम एक सीट पर तो मुस्लिम उम्मीदवार उतारा जाए, लेकिन उनकी बात अनसुनी कर दी गई. देखा जाए तो पार्टियों को मुसलमानों के वोट तो चाहिए, लेकिन इस वर्ग का नेता नहीं.
लोकसभा चुनाव 2014 कुल सीटें- 07
पार्टी सीट (वोट प्रतिशत)
भाजपा 07 46.40
आप 00 32.90
कांग्रेस 00 15.10