जवाहरलाल कौल
महबूबा मुफ्ती के लिए अपने जीवन की सबसे कठिन घड़ी आ गई है जबकि उन्हें दोस्तों और दुश्मनों की पहचान करने की सख्त आवश्यकता है। अपनी पार्टी में उनके मित्र बहुत तेजी से घट रहे हैं और पुराने मंत्रियों में तो दोस्ती निभाने वालों का पहले से ही टोटा पड़ गया है। इसमें बहुत कुछ तो कसूर उनका अपना है तो एक वजह उनके पिता का असमय गुजर जाना भी है। उनके पिता ने जो पार्टी खड़ी की थी उसके अधिकतर सदस्यों की वफादारी नेता से अधिक अपनी उस विचारधारा से थी जिसने उन्हें पीडीपी में शामिल होने के लिए पे्ररित किया। मुफ्ती परिवार ने कुछ वायदे किए थे जो वे अपने पुराने संगठन में रहते हुए पूरा नहीं करवा सकते थे। आमतौर पर कहा जाता है कि पीडीपी पुराने अलगाववादियों की पार्टी है जो अब फुर्सत की राजनीति करना चाहते थे। लेकिन इन बातों पर परदा ही रहने दिया जाता है कि वे किसी लोकतांत्रिक प्रक्रिया में विश्वास नहीं करते और न ही कथित धर्मनिरपेक्षता से उनका कोई लगाव है। वे दरअसल पीडीपी के पूर्ण स्वायत्तता के प्रस्ताव से बंधे चले आए। पीडीपी ने अपने प्रस्ताव में मांग की है कि जम्मू कश्मीर को पूर्ण स्वायत्त राज्य बना लिया जाए जिसको पड़ोसी देशों के साथ भी समझौते करने की छूट हो और कालांतर में एक विनिमय योग्य सिक्का भी जारी किया जा सके जो भारतीय सिक्के से भिन्न हो। यह इसलिए आवश्यक समझा गया कि जम्मू कश्मीर एक मुक्त व्यापार केंद्र बने। इसके साथ ही पीडीपी भारत के साथ विलय को अंतिम नहीं मानती क्योंकि वह इसका हल निकालने के लिए पाकिस्तान की सहमति आवश्यक मानती है। अगर इन बातों को ध्यान से देखा जाए तो अलगाववादी संगठनों के बयानों से इनका करीबी मेल है। जब इन्हीं बातों को सार्वजनिक राजनीति का हिस्सा बना लिया जाता है तो इसका आतंकवाद की ओर खिसकना भी स्वाभाविक है। पीडीपी ने विधानसभा का चुनाव जिन मुद्दों पर लड़ा उसमें प्रचार का एक मुद्दा तो स्वशासन भी था जो आम लोगों तक पहुंचते पहुंचते कश्मीर की आजादी में भी बदलता रहा है।
अगर इन वायदों के आधार पर कार्यकर्ताओं को जुटाना आवश्यक था तो यह भी अब साफ है कि उनमें से कोई भी मुद्दा न तो पूरा हो पाया और न ही उस दिशा में कोई प्रगति हुई है। यह एहसास तो पीडीपी के समर्थकों को तभी हो गया था जब महबूबा के पिता जीवित थे, लेकिन उनके न रहने के पश्चात तो उनकी रही सही उम्मीद भी जाती रही। इसी एहसास के कारण वे पीडीपी से किनारा करने लगे थे। अब यह प्रक्रिया इतनी दूर तक गई है कि महबूबा का जनाधार लगभग समाप्त हो गया है। इसी कारण महबूबा को अपने ही समर्थक अब उपयोगी नहीं मानते। याद रखना चाहिए कि जमाते इस्लामी को जब चुनावी राजनीति में असफलता मिली तो उसने आतंकवाद के रास्ते अपना लक्ष्य पाने का फैसला किया। हिज्बुल मुजाहिद्दीन नामक आतंकवादी गुट को जमात की ही सशस्त्र शाखा माना जाता था। यह आतंकवादी गुट कश्मीर के गम्भीर आतंकवादी दौर में सबसे अग्रणी गुट माना जाता था। लेकिन कालांतर में जमाते इस्लामी ने प्रत्यक्ष आतंकवाद से अपना हाथ किसी हद तक खींच लिया। वह पीछे रह कर सैद्धांतिक प्रचार में ही लगा रहा। लेकिन मुफ्ती प्रयोग के असफल होने पर उसे फिर से आतंक का सहारा लेने का ही रास्ता सूझा। मृतप्राय हिज्बुल मुजाहिद्दीन में जान फूंकने के लिए ही ‘प्ले बॉय’ बुरहान वानी को आगे करना पड़ा। बुरहान वानी का मारा जाना सुनियोजित वारदात थी क्योंकि मारा गया आतंकवादी जीवित आतंकवादी से अधिक व्यापक प्रचार का माध्यम होता है। महबूबा के लिए यही परीक्षा का अवसर था। वे एक समझदार राजनेत्री के रूप में सुरक्षाबलों की प्रशंसा करतीं या कम से कम चुप रह सकती थीं। लेकिन वे इस घटना की खामियां निकालने लग गर्इं और ऐसा आभास होने लगा कि आतंकवादियों के प्रति सहानुभूति की दबी हुई भावना उभर आई है। यह सिलसिला लगातार कई महीने चलता रहा। और इस पूरी अवधि में सुरक्षा बलों की कार्रवाइयों पर उनकी टिप्पणियों से अपनी यह छवि पक्की ही कर दी। इस तरह महबूबा दोनों पक्षों से हानि में रहीं, भाजपा का भरोसा भी डोलने लगा और उनके समर्थक भी उन्हें नाकाम मानने लगे।
महबूबा के बहुत से बयानों को नजरअंदाज करने के बावजूद भाजपा के लिए कुछ बातें सहन करना आसान नहीं था। रमजान के महीने में सुरक्षा बलों की कार्रवाई पर प्रतिबंध लगाने का उद्देश्य यह था कि दूसरी ओर से भी संयम बरता जाएगा ताकि लोग आराम से ईद मना लें। सुरक्षा बल इसके विरुद्ध थे और किसी प्रकार की ढील देने के पक्ष में नहीं थे। केंद्र सरकार ने एक प्रयोग के लिए इस सुझाव को मान लिया। लेकिन यह बात निश्चित कर ली थी कि अगर यह प्रयोग सफल नहीं हुआ तो इसे आगे नहीं बढ़ाया जाएगा। रमजान का महीना कश्मीर घाटी के लिए न केवल सबसे खूनी महीना साबित हुआ अपितु नियंत्रण रेखा पर भी जितना रक्तपात हुआ उतना पहले किसी एक महीने में नहीं हुआ। इसी दौरान राइफल मैन औरंगजेब खान को अगवा करके जिस बेरहमी से मारा गया उससे सुरक्षा बलों का ही नहीं आम जनता का पारा भी आसमान छूने लगा। यह भाजपा के लिए एक चेतावनी थी। भाजपा को मत जम्मू क्षेत्र से ही मिला है जिसने पाक गोलाबारी को सबसे बड़े पैमाने पर झेला है। यह गुस्सा जम्मू के बाजारों में ही नहीं गांवों में भी दिखाई देने लगा। गुस्सा मूल रूप से पाकिस्तान और कश्मीर सरकार पर था लेकिन भाजपा भी इसका शिकार हुए बिना नहीं रह सकती थी। एक ऐसी स्थिति आ गई थी जिसमें भिन्न भिन्न कारणों से दोनों दलों के अपने मतदाता बगावत पर उतर आने लगे थे। अलग होने पर भाजपा गठबंधन सरकार की बाधाएं बताकर सारा कसूर महबूबा के सिर डालने की कोशिश करेगी। राज्यपाल शासन लागू करके सुरक्षा को अधिक दुरुस्त करके भाजपा अपनी सफलता का ढोल पीट भी सकती है। लेकिन महबूबा क्या करेंगी?
महबूबा के पास दो ही विकल्प हैं। वे या तो पुरानी नीति पर ही चलकर वायदों की अपूर्णता का कारण भाजपा की केंद्र सरकार को बता सकती हैं। ऐसे में उन्हें स्वशासन और पाकिस्तान को तीसरे पक्ष के रूप में शामिल करने जैसे मुद्दे उछालने होंगे। इसमें सबसे बड़ा खतरा यह है कि ऐसा करने से पीडीपी के लिए अपने आपको अलगावादी दलों से अलग रखना मुश्किल होगा। अतिवाद एक प्रतियोगी प्रक्रिया होती है। आटोनॉमी का एक मॉडल नेशनल कांफें्रस का भी है। पीडीपी ने उसे सुधारकर और स्वशासन के निकट लाया। अब किसी को इसे और बेहतर करना है तो उसे सीधे जम्मू कश्मीर को स्वतंत्र देश बनाने की मांग उठानी होगी। ऐसी मांग के साथ कोई राजनीतिक दल कब तक लोकतांत्रिक व्यवस्था में चल सकता है? दूसरा मार्ग है कि पुराने रास्ते को भूल कर अधिक लोकतांत्रिक मार्ग अपनाया जाए कि कश्मीर में परिवारवाद और सुन्नी वर्चस्ववाद से हटकर सर्व पंथ समता के सिद्धांत पर अपनी विचारधारा आधारित की जाए। लेकिन इसके लिए उस समर्थक वर्ग से मुक्त होकर नए सिरे से अपने दल को संगठित करना होगा। यह मार्ग लंबा भी है कठिन भी, लेकिन इसके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। जम्मू कश्मीर के राजनीतिक दलों को कुछ बातों पर सहमत होना चाहिए। भारतीय संविधान को सर्वोपरि मानते हुए धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक राजनीति से ही जम्मू कश्मीर भौतिक रूप से संपन्न राज्य हो सकता है और सांस्कृतिक स्तर पर भी। हर मामले पर पाकिस्तान को बीच में लाने से खूनखराबा तो होगा लेकिन समस्या नहीं सुलझेगी।
लेकिन पहल केंद्र सरकार को करनी होगी। राज्यपाल के माध्यम से केंद्र सरकार कई ऐसे कदम उठा सकती है जिससे जम्मू कश्मीर के उन वर्गांे के साथ संवाद स्थापित करना होगा जो आज भी अलगाववाद से प्रभावित नहीं हैं। राज्य में आर्थिक रूप से अपने पैरों पर खड़ा होने की क्षमता है लेकिन उसके लिए अमन चैन की आवश्यकता है। पाकिस्तान आतंकवादियों के माध्यम से ब्लैकमेल की नीति पर चलता है। इसलिए आवश्यक है कि पाकिस्तान को सीमा पर बसे गावों को निशाना बनाकर उजाड़ने की नीति का खामियाजा भुगतने के लिए मजबूर करना होगा, केवल कागजी विरोध प्रदर्शनों से काम नहीं चलेगा। फिलहाल अमरनाथ यात्रियों की सुरक्षा का पक्का प्रबंध कराना सुरक्षा बलों की प्राथमिकता है। यह केवल यात्रियों की जानमाल की रक्षा का ही सवाल नहीं है। यह आतंकवादी गुटों को सीधा जवाब देने का भी प्रश्न है। राज्यपाल शासन का स्वागत लगभग सभी दलों ने किया है क्योंकि इस समय कोई भी दल नए चुनाव के लिए तैयार नहीं है। लेकिन अगर चुनावों के लिए ये तैयारियां प्रतियोगी अलगाववाद के आधार पर की गर्इं तो जम्मू कश्मीर में तनाव के माहौल से मुक्ति पाना और मुश्किल होगा। अगर चुनाव के मुद्दे आम जनता की बेहतरी और विकास पर आधारित हों तो लोग अपने वोट का मूल्य जान कर लोकतांत्रिक व्यवस्था में उत्साह के साथ शामिल होंगे।