आलोक पुराणिक
करीब दस साल से जीएसटी यानी गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स का विषय चर्चा में है। चर्चा चल रही है। लोकतंत्र में चर्चा बहुत जरूरी होती है, यह चर्चा लंबी चलती जाए, तो उसका खर्चा आम करदाता ही भरता है। इधर तो कांग्रेस के रुख के कारण चर्चा भी नहीं हो पा रही है। लोकतंत्र का यह भी एक आयाम है। जिस काम को करना संसद का उद्देश्य हो, उस काम को छोड़कर संसद में बाकी सब काम किये जा रहे हों। संसद का प्राथमिक उद्देश्य है राष्ट्रीय हित के मसलों पर चर्चा करना, उन पर कानून बनाना। किसी मसले पर असहमति हो, तो उस मसले को सुलझाना। पर भारतीय संसद एकदम अलग हिसाब से चलती है। और कई बार तो यह भी गलतफहमी ही मानी जाएगी कि अगर चलना इसे ही कहते हैं, तो रुकना किसे कहा जाएगा।
जीएसटी का मसला राज्यसभा में उलझा हुआ है, वहां भाजपा-एनडीए सरकार अल्पमत में है। कांग्रेस का जो मूड है, उसे देखते हुए साफ है कि वह किसी भी सूरत में जीएसटी का श्रेय भाजपा-एनडीए सरकार को लेने देना नहीं चाहती। मुल्क बहुत सहिष्णु है, कई साल तक इंतजार कर सकता है, ऐसा तमाम नेता मानते हैं।
सवाल है कि आखिर जीएसटी है क्या और इसकी जरुरत पड़ क्यों रही है। इस समय देश में कई स्तर की सरकारें और कई स्तरों के टैक्स हैं। केंद्र से लेकर राज्य तक, राज्य से लेकर पंचायत स्तर के कर इस वक्त हैं। एक राज्य से दूसरे राज्य माल ले जाने पर कर है (देखें बाक्स-गति यानी विकास)। किसी शहर में घुसने के लिए एंट्री टैक्स है। शराब पर कर है, बच्चे की कोचिंग फीस दें, तो उसमें सर्विस टैक्स लगता है। मोबाइल का जो बिल आता है, उस पर सर्विस टैक्स लगता है। ब्यूटी पार्लर की रसीद गौर से देखने पर साफ होता है कि वहां भी कर है, सर्विस टैक्स फिलहाल 14.50 प्रतिशत है। भारतीय अर्थव्यवस्था के सकल घरेलू उत्पाद में साठ प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा सेवा क्षेत्र का है। सौ से ज्यादा सेवाओं पर सेवा कर लिया जा रहा है।
गुड्स यानी साज-सामान कार, ट्रक, बाइक से लेकर सिगरेट वगैरह पर कर लगता है उसे उत्पाद शुल्क कहते हैं। यह दर अलग अलग हैं। किसी आइटम पर यह दर कम है, किसी आइटम पर यह दर ज्यादा है। अब गुड्स एंड सर्विस टैक्स यानी जीएसटी के तहत योजना है कि सारी वस्तुओं और सेवाओं को एक ही तरह के कर के दायरे मे लाया जाए उसे कहा जाए गुड्स एंड सर्विस टैक्स। यानी कुल मिलाकर कर व्यवस्था में मच रही अव्यवस्था को ठीक किया जाए।
जीएसटी पर हाल में आयी अरविंद सुब्रह्मणयम की रिपोर्ट से पता लगता है कि अधिकांश वस्तुओं और सेवाओं पर कर की दर 18 प्रतिशत के आसपास हो सकती है। अरविंद सुब्रह्मण्यम वित्त मंत्रालय में मुख्य आर्थिक सलाहकार हैं। इसका मतलब यह हुआ कि हर सेवा पर कर की दर बढ़ सकती है यानी 14.5 प्रतिशत से बढ़कर 18 प्रतिशत हो सकती और बहुत संभव है कि तमाम उत्पादों पर लगनेवाले कर की दर कम हो जाएगी।
फैसलों का अधिकार जीएसटी काउंसिल को
चूंकि जीएसटी का असर केंद्र और राज्यों- दोनों स्तर की अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ेगा, इसलिए यहां केंद्र और राज्य दोनों स्तर के प्रतिनिधित्व का प्रावधान है। जीएसटी कौंसिल में केंद्रीय वित्तमंत्री होंगे, वित्त मंत्रालय के वह केंद्रीय राज्यमंत्री होंगे, जो राजस्व के लिए जिम्मेदार होंगे। और तमाम राज्य सरकारों के वित्तमंत्री होंगे। जीएसटी कौंसिल में केंद्र्र सरकार के पास एक तिहाई वोटिंग पावर होगी और राज्यों के पास दो -तिहाई वोटिंग पावर होगी। एक राजनीतिक मसला यह उलझा है कि विपक्षी दल मांग कर रहे हैं कि इस कौंसिल में केंद्र की वोटिंग पावर एक तिहाई होने के बजाय सिर्फ पच्चीस प्रतिशत हो।
इस तरह से देखें, तो जीएसटी में केंद्र और राज्यों का प्रतिनिधित्व है। पर केंद्र सरकार की वोटिंग पावर को लेकर मसला अभी सुलझा नहीं है। यही कौंसिल तय करेगी कि किन वस्तुओं और सेवाओं पर जीएसटी लगाया जाए। किस दर से लगाया जाए। यह कौंसिल यह भी तय करेगी कि उत्तर-पूर्वी राज्यों, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड को लेकर किस तरह से खास प्रावधान रखे जाएं। जीएसटी कौंसिल ही जीएसटी पर उठनेवाले विवादों को सुलझाने के लिए जिम्मेदार होगी।यानी कुल मिलाकर इस व्यवस्था से यह साफ होता है कि कराधान के अधिकार केंद्र सरकार के साथ राज्य सरकारों के प्रतिनिधित्व से तय होंगे।
मोटे तौर पर इस जीएसटी पर सबसे बड़ा बवाल कांग्रेस द्वारा लगाई गई वह शर्त है कि जीएसटी की दर को 18 प्रतिशत पर फिक्स कर दिया जाए और इस दर को पक्के तौर पर संविधान में ही दर्ज कर दिया जाए। कांग्रेस की मांग का मतलब यह हुआ कि कभी जीएसटी को बढ़ाना हो, तो वह संविधान को बदलने जैसा मुश्किल और जटिल काम हो जाए। यह अव्यावहारिक है। कर की दरें संविधान में नहीं लिखी जा सकतीं। संविधान मार्गदर्शक सिद्धांत बता सकता है। पर बजट संविधान द्वारा दी गई ताकतों के तहत सरकार बनाती है और उस पर आपत्तियां, सुझाव दर्ज कराने का जिम्मा विपक्ष का है।
कुल मिलाकर यह शर्त ऐसी है, जिसे कोई भी सरकार नहीं मान सकती। केंद्रीय वित्तमंत्री अरुण जेटली ने कांग्रेस की ऐसी तमाम शर्तों के बारे में कहा कि ये सब बाद में उपजे हुए विचार हैं। जब जीएसटी से संबंधित प्रावधान कांग्रेस ने पेश किए, तब उनमें ऐसी किसी शर्त का जिक्र नहीं था।
सीपीएम पूरे मसले को नया दृष्टिकोण यह कह कर देती है कि भाजपा इस मसले पर राजनीति कर रही है। भाजपा को चूंकि तमिलनाडु में जयाललिता से राजनीतिक समझौते करने हैं, और जयललिता की पार्टी को जीएसटी पर बहुत आपत्तियां हैं, इसलिए भाजपा जीएसटी को लटकाए हुए है।
कुल मिलाकर सीपीएम या कांग्रेस किसी भी सूरत में यह नहीं चाहेंगी कि इस मसले पर कोई क्रेडिट भाजपा ले जाए। इसलिए इसे उलझाने की हर संभव कोशिश कांग्रेस कर रही है। पहले एक मसला यह उठा था कि इस कर से तमाम राज्य सरकारों के राजस्व को नुकसान होने की आशंका है। यह सूरत अब खत्म हो गई, राज्यों के किसी भी राजस्व-नुकसान की भरपाई पांच सालों तक किये जाने का प्रावधान आने से यह आशंका खत्म हो गई है।
गति यानी विकास
जीएसटी के लागू होने से तमाम प्रक्रियाओं में गति आने की उम्मीद है। वित्त मंत्रालय के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रहण्यम जीएसटी पर पेश अपनी रिपोर्ट में साफ करते हैं कि जीएसटी लागू होने से इंडिया को सही मायने में एक होने में मदद मिलेगी। यानी तमाम साज-सामान एक राज्य से दूसरे राज्य कर-जटिलताओं के बगैर आ-जा पाएगा। मेक इन इंडिया बाय मेकिंग वन इंडिया- इस मुहावरे को अरविंद प्रयुक्त करते हैं। एक राज्य के ट्रक बिना तमाम एंट्री-टैक्स, कर वगैरह की चौकियों पर रुके अगर तेज गति से चलें, तो पूरी अर्थव्यवस्था को उसका फायदा मिलेगा।
अमेरिका में एक ट्रक रोज औसत 800 किलोमीटर चलता है, पर भारत में एक ट्रक औसतन 280 किलोमीटर रोज चलता है। वजह यह है कि भारतीय ट्रक को तमाम कर बिंदुओं पर रुकना होता है। भारत में सड़क पर अगर ट्रक चार घंटे होता है, तो उसमें से एक घंटा तो सिर्फ तमाम कर बिंदुओं की हाजिरी देने में ही खर्च होता है। अगर जीएसटी लागू होता है तो तमाम कर बिंदुओं का खात्मा हो जाएगा। हर तब ट्रक रोज छह घंटे ज्यादा चल पाएंगे. करीब 164 किलोमीटर रोज ज्यादा चल पाएंगे।
ट्रक तमाम राज्यों में न्यूनतम कर बाधाओं के साथ दौड़ेंगे तो इसका परिणाम यह होगा कि तमाम कारोबारियों को स्टाक प्रबंधन में आसानी होगी। स्टाक की लागत कम होगी। भारत में जीएसटी का महत्व इसलिए बढ़ जाता है कि तमाम कारोबारी ट्रैफिक का करीब 72 प्रतिशत सड़कों के जरिये ही होता है, जो जीएसटी के जरिये सीधे लाभान्वित होगा। पर मसला लाभ गिनाने का नहीं है। कांग्रेस को जीएसटी के सारे लाभ पता हैं, क्योंकि इस बारे में महत्वपूर्ण कामकाज उसी की सरकार के जमाने में शुरू हुआ था। कांग्रेस के बेहतरीन दिमाग -तत्कालीन कांग्रेस नेता प्रणब मुखर्जी, पी चिदंबरम जीएसटी से जुड़े रहे हैं। पर उससे क्या होता है, फैसला तो अंत में राजनीति से ही होना है।
जीएसटी लागू न होने के नुकसान
सवाल यह है कि जीएसटी के मसले पर देरी के नुकसान क्या हैं। नेशनल कौंसिल आफ अप्लाइड इकोनोमिक रिसर्च (एनसीएईआर) ने दिसंबर, 2009 में तेरहवें वित्तीय आयोग के लिए एक रिपोर्ट तैयार की थी, इस रिपोर्ट का शीर्षक था-मूविंग टू गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स इन इंडिया-इंपैक्ट आन इंडियाज ग्रोथ एंड इंटरनेशनल ट्रेड। इस रिपोर्ट में एनसीएईआर ने बताया था कि जीएसटी लागू होने पर विकास दर में दशमलव 9 प्रतिशत से लेकर 1.7 प्रतिशत विकास दर अतिरिक्त हासिल की जा सकेगी। इसका मोटा-मोटा आशय यह हुआ कि भारतीय अर्थव्यवस्था की जो विकास दर 7.5 प्रतिशत अनुमानित की जा रही है, वह बढ़कर नौ प्रतिशत सालाना हो सकती है। नौ प्रतिशत सालाना विकास दर का मतलब हुआ कि भारत में रोजगार ज्यादा होगा। आय ज्यादा होगी। अर्थव्यवस्था ज्यादा कुशलता की ओर जाएगी। जीएसटी के दायरे में करीब 20-25 लाख करदाता आएंगे। अरविंद सुब्रह्मण्यम ने जीएसटी की अपनी रिपोर्ट में साफ किया है कि आधुनिक भूमंडलीय कर इतिहास में भारतीय जीएसटी अभूतपूर्व होगा। दरअसल भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार इतना बड़ा है कि यहां जो भी कुछ भी राष्ट्रीय स्तर पर होता है, वह अभूतपूर्व होने की ही संभावना ही रखता है।
अर्थव्यवस्था कुशलता की ओर तमाम वजहों से जाएगी। अभी उदाहरण के लिए किसी आइटम का कच्चा माल महाराष्ट्र से आता है, उसका अंतिम आइटम आंध्र में बनता है और वह बिकता तमिलनाडु में है, तो इससे जुड़े तमाम सौदों में तीन राज्यों के करों के मसले शामिल होंगे। तीन स्तर पर करों को निपटाने में समय, ऊर्जा का व्यय होता है। एक कर हो, उसमें ही सारे राज्यों के कर समाहित हो जाएं, तो करदाता के लिए यह राहत की बात होगी।
दरअसल जीएसटी में देरी का मतलब है कि अर्थव्यवस्था की रफ्तार को बाधित रखना। बाधित अर्थव्यवस्था में रोजगार निवेश सबकी समस्या होगी। जीएसटी लागू न होने से साफ संदेश विदेशी निवेशकों, घरेलू निवेशकों को यह जाता है कि यह सरकार महत्वपूर्ण फैसले करवा पाने में समर्थ नहीं है। कांग्रेस यही चाहती भी है कि यही संदेश सब तरफ जाए। कांग्रेस का हित इसी में है। पर अर्थव्यवस्था का हित इसमें नहीं है। पर, पर, पर, लोकतंत्र में अंत में फैसले तो राजनीति से ही होते हैं।