उना के आकोलाली गांव में 13 सितंबर 2012 को सत्ताइस वर्षीय दलित युवक लाल जी भाई को पिछड़ी जाति के कोली समुदाय के सैकड़ों हथियारबंद लोगों ने जिंदा जला दिया था। लालजी पर कोली समुदाय की एक लड़की को अगवा करने का आरोप था, लेकिन लड़की के बयान और पुलिस तफ्तीश में आरोप झूठा साबित हुआ। घटना के बाद लाल जी के पिता जेठा भाई अपने परिवार के साथ उना में किराये के मकान में रहते हैं। गांव में जेठा भाई के पास पंद्रह बीघा जमीन है, लेकिन बहुसंख्यक कोली समुदाय के डर से यह दलित परिवार वापस गांव लौटना नहीं चाहता।
जेठा भाई जिÞला प्रशासन को ‘हिजरत’ (स्थानीय भाषा में पलायन) करने की जानकारी भी दे चुके हैं। गुजरात राज्य राजस्व विभाग में ‘हिजरत’ को कानूनी मान्यता नहीं है। बावजूद इसके उत्पीड़न के शिकार दलितों को, जिनकी जमीनें गांव में हैं, राज्य सरकार की ओर से पुनर्वास का लाभ दिया जाता है।
इस घटना के चार वर्षांे बाद भी जेठा भाई को जमीन नहीं मिली है। नतीजतन पीड़ित परिवार उना के आंबेडकर चौक पर पिछले कई दिनों से भूख हड़ताल पर बैठा है। पंद्रह अगस्त को यहां से चंद फर्लांग की दूरी पर होने वाली दलित अस्मिता रैली के बारे में जेठा भाई कहते हैं, ‘हमारा परिवार इस रैली में नहीं गया क्योंकि इन लोगों को हमारी कोई चिंता नहीं है। चार साल पहले हमारे बेटे को कोली जाति के लोगों ने जिंदा जला दिया था। तब दलितों के ये कथित हिमायती कहां थे।’
गुजरात में दलित उत्पीड़न की फेहरिस्त यहीं खत्म नहीं होती। उना से सटे अमरेली जिले के जामका गांव में 14 मार्च 2012 को कोली जाति के लोगों ने बीस वर्षीय मधु भाई की हत्या कर दी। मृतक के पिता वीरा भाई पर भी लोगों ने जानलेवा हमला किया था। सत्तर साल के बुजुर्ग वीरा भाई अपने बेटे को इंसाफ दिलाने के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं। दलित अस्मिता रैली के बारे में वीरा भाई कहते हैं- ‘साल 2012 में एक दलित को झूठे आरोप में जिंदा जला दिया गया, किसी अन्य दलित की हत्या कर दी गई, लेकिन दलितों के कथित हमदर्द इस पर खामोश रहे। अगले साल गुजरात में चुनाव हैं, इसलिए उना की घटना को केंद्र में रखकर राजनीति हो रही है।’
आंबेडकर चौक पर अनशन कर रहे इन लोगों से मिलने न तो जिग्नेश मेवानी आए और न ही रोहित वेमुला की मां राधिका और जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार। इस बारे में रामकुमार बताते हैं, ‘दलितों के हिमायती यही चेहरे अगले साल गुजरात विधानसभा चुनाव में मनमाफिक सियासी दलों के साथ समझौता करेंगे।’
गुजरात के गिर सोमनाथ जिले के उना कस्बे में मृत गाय की खाल उतारने के सवाल पर जिन दलित युवकों की पिटाई हुई थी, वे मोटा समढियाला गांव के निवासी थे। करीब पांच सौ साल पुराने इस गांव की आबादी तीन हजार है। वैसे तो गांव में कई जातियां निवास करती हैं, लेकिन दलितों के 127 घर हैं। गांव के ज्यादातर दलित परिवार भूमिहीन हैं और दूसरों के खेतों में मजदूरी करते हैं। यहां रमेश बालू भाई और वत्सराम ही एकमात्र परिवार हैं, जो मरी हुई गायों की खाल उतारते हैं।
ग्यारह जुलाई को मोटा समढियाला से डेढ़ कोस दूर भररिया गांव में रमेश अपने भाइयों के साथ गायों की खाल निकाल रहे थे। अचानक गौरक्षक दल के कार्यकर्ताओं ने उन पर हमला कर दिया। गौरक्षक उन लोगों को रस्सी के बांधकर उना ले गए। रमेश बालू भाई के मुताबिक, ‘एक गाय को शेर ने मारा था, जबकि दूसरी बीमारी की वजह से मरी थी।’ रमेश बताते हैं, ‘गौरक्षा दल से जुड़े कार्यकर्ताओं ने बिना वजह उनके साथ ज्यादती की। घटना के बाद हमने मृत गायों की खाल नहीं उतारने का प्रण लिया है। सरकार हमारे लिए रोजगार के वैकल्पिक अवसर मुहैया कराए और पांच एकड़ जमीन दे, यही हमारी मांग है।’
गुजरात के दलितों की हालत देश के बाकी सूबों से अलग नहीं है। उना की घटना इस देश में पहली और अंतिम घटना नहीं है। उना की पूरी घटना समझने के लिए यहां की सामाजिक और आर्थिक स्थिति पर भी गौर करना बेहद जरूरी है। सबसे पहले बात गौरक्षा समिति की। करीब सौ साल पुराने इस संगठन में राजपूतों एवं बाह्मणों के अलावा पिछड़ी जाति के कोली और अहीर समुदाय का वर्चस्व है। गुजरात की राजनीति में शिवसेना का खास दखल नहीं है, लेकिन गौरक्षा समिति में शिवसेना से जुड़े कार्यकर्ताओं की अच्छी पैठ है। शिवसेना के स्थानीय नेता प्रमोद गिरी इसी गौरक्षा समिति से जुड़े हुए हैं।
मोटा समढियाला और उसके आसपास के बाईस गांव काठी दरबार (राजपूत) बहुल हैं। काठी दरबार का रिश्ता काठियावाड़ से है। सौराष्ट्र में काठी दरबारों (राजपूतों) की दो सौ छोटी-बड़ी रियासतें थीं। देश में जमींदारी उन्मूलन कर गैर-बराबरी खत्म करने का प्रयास तो जरूर हुआ, लेकिन काठी दरबार अब भी अपने पुराने ख्यालातों से बाहर नहीं आ सके हैं। काठी दरबार बहुल सामतेर वही गांव है जहां रैली के बाद वापस लौट रहे दलितों पर कातिलाना हमला हुआ, जिसमें दो दर्जन से अधिक लोग जख्मी हो गए थे। उना की रैली के बाद गैर दलितों के बीच यह बात घर कर गई है कि दलित समाज के लोग उनके विरोधी हैं। यही वजह है कि इलाके के राजपूत और प्रभावशाली पिछड़ी जातियों ने दलितों का सामूहिक बहिष्कार कर दिया है।
उना की घटना और इस बाबत दलों की सक्रियता ने मामले को सुर्खियां प्रदान की हैं, लेकिन दलितों की मूल समस्या और उसके समाधान पर चर्चाएं कम हो रही हैं। अगले साल गुजरात, उत्तर प्रदेश, पंजाब और गोवा में विधानसभा के चुनाव होने हैं। लिहाजा कांग्रेस, आम आदमी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की नजर दलित मतदाताओं पर है। दलितों पर अत्याचार की खबरें दूसरे राज्यों से भी आती हैं, लेकिन उनके विरोध में न तो कोई स्वर सुनाई देता है और न ही कोई पदयात्रा होती है। उना की घटना निंदनीय एवं अमानवीय है, लेकिन मामले पर जिस तरह नेताओं ने सक्रियता दिखाई, उससे लोगों में एक शक पैदा हो गया है।
गुजरात में चुनाव की चर्चा अमूमन पाटीदारों और पटेलों के इर्द-गिर्द ही सीमित रहती है। वक्त बेवक्त ऊंची जातियों का भी जिक्र आता है। हकीकत में दलित और आदिवासी सियासी दलों की नजरों में एक वोटबैंक हैं। अगले साल गुजरात चुनाव में दलित मतदाता किसके साथ जाएंगे? यह मुकम्मल तौर पर नहीं कहा जा सकता, लेकिन दलितों की रहबर बनी पार्टियों ने इस समुदाय के बीच एक भ्रम की स्थिति पैदा कर दी है।
उना हिंसा और प्रशासन की लापरवाही
उना में दलित अस्मिता रैली से लौट रहे दलितों पर सामतेर गांव के काठी दरबारों ने कातिलाना हमला कर दिया। इस हमले में दो दर्जन से ज्यादा लोग जख्मी हो गए जिनका इलाज राजकोट और भावनगर जिले के अस्पतालों में चल रहा है। यह हमला शाम करीब छह बजे हुआ। हथियारों से लैस काठी दरबारों ने दलितों पर जमकर लाठी-डंडे और गोलियां बरसार्इं। दलितों का आरोप है कि सामतेर की घटना प्रशासनिक लापरवाही के कारण हुई।
सामतेर की घटना से पहले इस संवाददाता ने उना डाकबंगले में कैंप कर रहे गिर सोमनाथ के जिलाधिकारी डॉ. अजय कुमार से पूछा, ‘मौजूदा तनाव के मद्देनजर प्रशासन सामतेर समेत अन्य संवेदनशील गांवों के लोगों से लाइसेंसी शस्त्रों को जमा कराने की दिशा में क्या कर रहा है?’ इस पर जिÞलाधिकारी ने कहा, ‘यहां आठ सौ लोगों के पास लाइसेंसी शस्त्र हैं, लेकिन उन्हें गन हाउस में जमा कराने की कोई योजना नहीं है। दलित अस्मिता रैली शांतिपूर्वक संपन्न होगी, इसलिए हथियारों को जमा कराने का कोई आदेश जारी नहीं हुआ है।’
सामतेर में जिस तरह काठी दरबारों ने अंधाधुंध फायरिंग की उससे जाहिर होता है कि वे पूरी तैयारी के साथ मौके पर पहुंचे थे। उन्होंने फायरिंग में अपने लाइसेंसी हथियारों का इस्तेमाल किया था।