डॉ. विजय शर्मा।
एक लड़की शाम को अपने आॅफिस से लौट रही थी। वह रोज की तरह बस से उतर कर अपने घर की ओर जा रही थी। बस स्टैंड और उसके घर के बीच कुछ अधबनी बिल्डिंग्स थीं। बस से उसके पीछे-पीछे एक और शख्स उतरा। झुरपुटा हो रहा था। अचानक उस शख्स ने लड़की को पीछे से दबोच लिया। उसका मुंह एक हाथ से दबा कर वह उसे पास के सुनसान इलाके की ओर ले गया और उसने वहां उसके साथ दुष्कर्म किया और लड़की को बदतर हालत में छोड़ कर चलता बना।
…कुछ बच्चों ने मोबाइल पर एक वीडियो देखा, वे बहुत उत्तेजित थे। उसके बाद वे पास के एक घर के सामने से गुजरे, वहां एक बच्ची दरवाजे पर खेल रही थी। उन लोगों ने बच्ची को अपने साथ खेलने के लिए फुसलाया। फुसला कर वे उसे पास की झाड़ियों में ले गए। वहां उन्होंने उसके साथ दुष्कर्म का प्रयास किया। उन्होंने जो भी वीडियो में देखा था उसे दोहराने की कोशिश की। लड़की चिल्लाए नहीं इसलिए उन्होंने उसका मुंह दबा कर रखा। उसे खूब मारा-पीटा और उसे वहीं छोड़ कर चलते बने। बदहवास लड़की करीब-करीब बेहोश थी।
…गर्मी की एक दोपहर एक किशोर युवक पड़ोसी के फ्लैट में गया जिसका दरवाजा खुला था। उसने घर की स्त्री से पीने के लिए पानी मांगा। महिला जब पानी लाने रसोई की ओर गई किशोर ने घर का दरवाजा धीरे से बंद कर दिया। किशोर स्त्री के पीछे-पीछे रसोई तक चला आया। वहां उस किशोर ने उस प्रौढ़ा स्त्री के साथ दुष्कर्म किया। स्त्री ने बहुत शोर मचाया लेकिन गर्मी की दोपहर के सन्नाटे में कौन सुनता। दुष्कर्म के बाद युवक उस स्त्री को धमकी देता गया, यदि वह किसी से कहेगी तो वह उसकी बेटी के साथ भी यही करेगा और उन लोगों को मार डालेगा।
इन तीनों घटनाओं में अपराधी पुरुष है और पीड़िता स्त्री। बालक से लेकर प्रौढ़ उम्र तक का पुरुष बलात्कार करता है, यानी बलात्कारी की उम्र कुछ भी हो सकती है, इसी तरह पीड़िता की उम्र की भी कोई सीमा नहीं है। इनकी आर्थिक स्थिति भी कोई मायने नहीं रखती है। एक समय का विश्वास कि घेटो तथा गरीब बस्ती के लोग ही बलात्कार करते हैं आज गलत साबित हो चुका है। न केवल मानसिक रूप से बीमार यह दुष्कर्म करते हैं वरन आंकड़े बताते हैं कि स्वस्थ व्यक्ति भी ऐसा करने में पीछे नहीं हैं। बलात्कार से जुड़े कई मिथक आज टूट चुके हैं। इन घटनाओं को पढ़ कर ऐसा लग सकता है कि बलात्कारी सदैव पुरुष ही होता है और पीड़िता स्त्री। लेकिन विरल घटनाएं ऐसी भी देखने में आती हैं जहां पुरुष पीड़ित होता है और अपराधी स्त्री।
सुबह अखबार या टीवी खोलते ही सबसे पहले मुंह पर तमाचा पड़ता है बलात्कार की खबरों का। अब ये घटनाएं इतनी अधिक संख्या में घट रही हैं कि हमारी संवेदनाएं इनके प्रति मर गई हैं। हम टीवी पर इस तरह की घटनाओं की खबर देख कर अथवा अखबार में पढ़ कर कुछ पलों में भूल कर अपने रोजमर्रा के काम में लग जाते हैं। जब तक ये हमारे अपने या अपनों के साथ न घटित हों हम पर बहुत असर नहीं डालती हैं। इन्हें धर्म और राजनीति से जोड़ कर मुद्दे से ध्यान भटका देना भी खूब होता है। एक सर्वे के अनुसार भारत महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित देश है, हालांकि मैं इस बात से इत्तेफाक नहीं रखती हूं। लेकिन यह भी सत्य है कि यहां आए दिन बलात्कार होते हैं। चार साल की बच्ची से ले कर अस्सी साल की बुढ़ियों को भी ये बलात्कारी नहीं छोड़ते हैं। गंभीर समस्या यह है कि दिन-पर-दिन ये घटनाएं बढ़ रही हैं। लेकिन इधर कुछ चौंकाने वाली घटनाएं हुई हैं, जैसे कानपुर में चार साल की बच्ची से बलात्कार। नई और विचित्र बात इस सूचना में यह है कि बलात्कारी वयस्क पुरुष न हो कर लड़के हैं, वे किशोर भी नहीं बल्कि छोटे-छोटे बच्चे हैं, छह से दस साल की आयु के। क्या ये बच्चे बलात्कार का अर्थ जानते हैं? या फिर क्या ये बालक यौन संबंध स्थापित करने में सक्षम हैं? लेकिन बच्ची बदहवास पाई गई है और इन बालकों ने अपना अपराध कबूल कर लिया है। भले ही ये बच्ची के साथ यौन संबंध स्थापित न कर पाए हों लेकिन इन्होंने बच्ची को शारीरिक-मानसिक क्षति पहुंचाई है।
किसी की मर्जी के बिना जबरदस्ती शारीरिक संबंध स्थापित करना बलात्कार कहलाता है। शारीरिक संबंध स्थापित करते समय साथी को सताना, प्रताड़ित करना, कष्ट देना यौन उत्पीड़न की श्रेणी में आता है। अब वैवाहिक संबंध के भीतर बलात्कार को पहचाना जा चुका है। एक बड़ी संख्या ऐसी घटनाओं की भी दर्ज होती है। कुछ समय पहले तक यह धारणा थी कि बलात्कारी मानसिक रूप से कमजोर या मानसिक रोगी होता है। कुछ लोग व्यक्ति विशेष की यौन आकांक्षा का प्रचंड होना इसका कारण मानते हैं। लेकिन आज बलात्कारियों पर बहुत तरतीबवार गहन वैज्ञानिक शोध हो रहा है। उनके व्यवहार, मानसिक स्थिति, उनके गुणसूत्र, सामाजिक-आर्थिक-पारिवारिक स्थिति का विश्लेषण किया जा रहा है। हमारे देश में ऐसे अध्ययन अभी उतने नहीं हो रहे हैं, परंतु अमेरिका में इस तरह का अध्ययन खूब हो रहा है, खूब केस स्टडीज हो रही हैं। इस समस्या पर खूब किताबें उपलब्ध हैं।
आज की शिक्षा पद्धति और आज का फ़्लैट कल्चर बच्चों का बचपन छीन चुका है। स्कूल-घर के बीच में बचपन घुट कर रह गया है। मनोरंजन के नाम पर उसके सामने टीवी का स्क्रीन है और हाथ में मोबाइल। और इन दोनों पर मार-धाड़, हत्या, अविश्वसनीय कारनामों की भरमार है, फिर चाहे वो फिल्म हो अथवा गेम्स। तनाव आज के जीवन का बहुत बड़ा मुद्दा है। हर व्यक्ति तनाव में है, यहां तक कि बच्चे भी इससे अछूते नहीं हैं। तनाव सहने की सबकी क्षमता बराबर नहीं होती है। स्पर्द्धा दूसरा कारण है बच्चों में गलत व्यवहार पैदा करने का। बच्चों को खींच-तान कर वयस्क बनाने की कवायद हम स्वयं कर रहे हैं। नतीजा सामने है। ‘स्टेजेज आॅफ कल्चरल रिकैपिचुलेशन थ्योरी’ के अनुसार व्यक्ति जिस स्थिति को स्वाभाविक रूप से नहीं जी पाता है वह अतृप्त रह जाता है और उसकी पूर्ति अस्वाभाविक तरीके से होती है।
बलात्कारी एक व्यक्ति के रूप में खूब जटिल चरित्र होता है। क्लीनिकल स्टडीज बताती हैं कि ऐसा व्यक्ति मुख्य रूप से मात्र यौन तृप्ति के लिए बलात्कार नहीं करता है। बलात्कार से उसकी यौन क्षुधा के इतर उसकी कई अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। उसका यौन व्यवहार वास्तव में उसके गुस्से और शक्ति का प्रदर्शन होता है। बलात्कार असल में बहुत जटिल और बहु पक्के विचार का एक सूडोसेक्सुअल एक्ट है। यह दुष्कार्य क्रोध, शक्ति प्रदर्शन और आवेश से संचालित होता है। बलात्कार को केवल यौनेच्छा की अभिव्यक्ति मानना गलत है। यह न केवल गलत है वरन छद्म सिद्धांत है। क्योंकि इसका फल होता है अपराध की जिम्मेदारी का बड़ा हिस्सा अपराधी से हट कर पीड़ित पर डाल दिया जाता है। अक्सर सामान्य लोग ऐसा मान कर चलते हैं कि पीड़ित ने ही बलात्कारी को यौन कर्म के लिए प्रेरित किया है, उकसाया है। जानबूझ या अनजाने में अपने किसी व्यवहार से पीड़ित ने बलात्कारी के मन में यौनेच्छा उत्पन्न की है। यह उसका पहनावा हो सकता है या उसकी सुंदरता या फिर उसकी बोली-बानी हो सकती है अथवा उसका कोई अन्य व्यवहार हो सकता है। लेकिन यह सही नहीं है। अधिकांश बलात्कार की घटनाओं के पीछे यह कारण नहीं होता है। यह गलत धारणा है कि बलात्कार यौनेच्छा और यौन फ्रस्ट्रेशन का प्रतिफल होता है। इससे बलात्कारी, बलात्कार और पीड़ित तीनों के प्रति गलत धारणा बनती है और वास्तविक कारण कहीं पीछे छूट जाता है।
बलात्कार मनोवैज्ञानिक दुष्क्रिया है। यह मनोवैज्ञानिक दुष्क्रिया अस्थाई हो सकती है, निरंतर हो सकती है अथवा बारम्बार हो सकती है। अधिकतर यह भावात्मक रूप से कमजोर एवं असुरक्षित व्यक्ति की हताशा का प्रतिफल होती है। कई बार व्यक्ति जो अपने जीवन की मांगों को पूरा नहीं कर पाता है और अपने तनाव को संभालने में असमर्थ होता है, बलात्कार करता है। जब बलात्कारी से पूछा जाता है कि वे घटना के समय कैसा अनुभव कर रहे थे तो अक्सर उनका उत्तर होता है कि वे बहुत हताश थे। बलात्कारी अकेला, दूसरों द्वारा हाशिये पर डाल दिया गया, भीतर से खाली तथा कमजोर व्यक्ति होता है। उसके आस-पास कोई ऐसा व्यक्ति नहीं होता है जिससे वे खुद को रिलेट कर सकें, कोई ऐसा जो उनकी बात सुन सके, उनकी भावनाओं को, उन्हें समझ सके। ऐसा थका-हारा व्यक्ति दूसरों से सामान्य संबंध स्थापित नहीं कर पाता है। ऐसे व्यक्ति में सहानुभूति, विश्वास की कमी होती है। जिंदगी उसे बहुत कठोर और उससे बहुत ज्यादा मांग करने वाली लगती है, मांगें जो उसे फ्रस्ट्रेट करती हैं और वह फ्रस्ट्रेशन को सहन करने की क्षमता नहीं रखता है। ऐसे व्यक्ति के भीतर सामाजिक कुशलताओं का अभाव होता है।
गहन क्रोध, सेक्सुअलिटी, फ्रस्ट्रेशन, कडुआहट, दूसरों को नियंत्रित-शासित करने की भावना, स्थिति को नियंत्रित करने की इच्छा, दूसरों को कष्ट पहुंचाने में खुशी मिलना जैसे कई तत्व बलात्कारी में पाए जाते हैं। बलात्कार द्वारा कई मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। यह मालिकाना हक, शक्ति प्रदर्शन, नियंत्रण करने की प्रबल इच्छा, अस्मिता और अक्षमता की अभिव्यक्ति होता है। बलात्कारी बलत्कृत को सताने में मजा पाता है। बलत्कृत की बेबसी बलात्कारी को उत्तेजित और कहीं बहुत भीतर संतुष्ट करती है।
बलात्कार पर गंभीर अध्ययन करने वालों में ए निकोलस ग्रॉथ, पीएच डी का नाम काफी प्रमुखता से लिया जाता है। वे अपनी शोध पुस्तक ‘मैन हू रेप : द साइकोलॉजी आॅफ दि आॅफेंडर’ में लिखते हैं कि बलात्कारी ‘लोनर्स’ (अकेले) होते हैं जिनके पास दूसरों से निकट संबंध स्थापित करने की क्षमता बहुत ही कम होती है। जिंदगी में वे असफल होते हैं और उनके पास अपनी पहचान का संकट होता है, उनके पास स्व-अभिव्यक्ति के बहुत तरीके भी नहीं होते हैं। उनकी मानसिक स्थिति भोथरी और खाली होती है। वे बहुत अस्थिर प्रवृत्ति के व्यक्ति होते हैं। उनकी सहन शक्ति बहुत कमजोर होती है। वे बहुत जल्दी चिढ़ जाते हैं, अधिक समय लगने वाले किसी भी उद्देश्य को पूरा करने में असफल होते हैं क्योंकि उनके पास धैर्य नहीं होता है। अपनी अस्थिर प्रवृत्ति के कारण वे तनाव झेलने में भी कुशल नहीं होते हैं।
डेनिस जे. स्टीवेंस के अनुसार, ‘ली एलिस, हैन्स आइसनेक तथा गिस्ली गौडजॉनसन जैसे मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि यौन अत्याचार की प्रवृत्ति कुछ लोगों के डीएनए, गुणसूत्र में ही होती है। ऐसे व्यक्ति में यह प्रवृत्ति जन्मजात होती है।’ एलबर्ट बैन्डूरा का इस बात पर जोर है कि यौन अत्याचार व्यक्ति के सामाजिक अधिगम का हिस्सा होता है। व्यक्ति यह अपने आस-पास के वातावरण से सीखता है। डेनिस जे. स्टीवेंस अपनी किताब ‘इनसाइड दमाइंड आॅफ सेक्सुअल आॅफेंडर’ में लिखते हैं, ‘ए निकोलस ग्रॉथ के अलावा कुछ और मनोवैज्ञानिकों को भी बलात्कारी के व्यवहार में तीन पैटर्न नजर आते हैं : शक्ति प्रदर्शन के लिए बलात्कार, गुस्सा अभिव्यक्ति के लिए बलात्कार और परपीड़न कामुकता पूर्ति हेतु किया गया बलात्कार। इन लोगों का भी मानना है कि बलात्कार में यौन कदाचित ही प्रेरक होता है।’
‘इंस्ट्यूट आॅफ ह्यूमन बिहेवियर ऐंड अलाइड साइंसेस’ के डायरेक्टर निमेश देसाई का कहना है, ‘ऐसे अपराधियों के व्यवहार में गहरी धंसी पितृसत्तात्मकता और विपरीत लिंग के प्रति संवेदना का अभाव साथ ही आंतरिक यंत्रणा और अकेलापन होता है। पितृसत्ता स्त्री को पुरुष से हीन और पराधीन मानती है। उनके लिए स्त्री एक वस्तु मात्र होती है। पितृसत्तात्मक समाज में यह भावना गहराई से बैठी होती है कि स्त्री को काबू में रखना जरूरी है। काबू में रखने के कई अन्य तरीकों के साथ एक तरीका उसका यौन उत्पीड़न भी है। पितृसत्तात्मक मूल्य व्यक्ति में गहरे बैठे होते हैं। इसमें पुरुष स्वयं को श्रेष्ठ मानता है और विपरीत लिंगी के लिए उसके मन में कोई संवेदना नहीं होती है, अत: स्त्री के साथ यौन उत्पीड़न अथवा बलात्कार उसे जायज लगता है। अधिकांश घरों में लड़के शुरू से सुनते आते हैं, ‘लड़का कुछ भी कर सकता है…’‘स्त्री पैर की जूती होती है…’‘स्त्री को दबा कर रखना चाहिए वरना वह सिर चढ़ जाएगी…’ जब लड़का शुरू से ऐसी बातें सुनता है और अपने परिवार के मर्दों को स्त्री का अपमान करता देखता है तो उसके मन में भी स्त्री के प्रति कोई कोमल भावना नहीं जन्मती है। वह स्त्री-पुरुष समानता पर विश्वास नहीं करता है। ‘इनसाइड द माइंड आॅफ सेक्सुअल आॅफेंडर’ के लेखक डेनिस जे. स्टीवेंस के अनुसार, ‘बलात्कार पुरुष अत्याचार संस्कृति का हिस्सा है। कह सकते हैं कि यौन अत्याचार स्त्री की विशेषताओं के लिए पुरुष के मन में नफरत का प्रतीक है।’
सामूहिक बलात्कार की मानसिकता भिन्न होती है। बड़ा जोखिम लेना समूह व्यवहार, उसकी मानसिकता का अंग होता है। समूह नकारात्मक संवेग को बढ़ावा देता है। असामाजिक काम और अपराधी व्यवहार समूह में अधिक होते हैं। समूह सदस्यों को साहस, बहादुरी का आभास प्रदान करता है। सामूहिक बलात्कार बलात्कारी को सुकून देता है। यह पुरुषत्व के प्रदर्शन और फैसले में समझौते को बढ़ावा देता है। जिम्मेदारी किसी एक पर नहीं पड़ेगी यह भावना समूह में काम करती है, अत: वे कोई भी जोखिम उठाने को तत्पर हो जाते हैं। सामूहिक बलात्कार के संदर्भ में गत्यात्मकता भी बढ़ जाती है। असामाजिक व्यवहार को साथियों की सहायता और सहयोग प्राप्त होता है, साथ ही वे अपने काम को वैधता प्रदान करते हैं।
इसी तरह किशोर बलात्कारी और बाल बलात्कारी को मनोवैज्ञानिक तरीके से एक ही श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है। हालांकि किशोर और बालक दोनों में यौन व्यापार को ले कर स्वाभाविक उत्सुकता होती है। किशोर यौन संबंध बनाने में सक्षम होता है मगर बालक में उत्सुकता होने के बावजूद उसके लिए यह संभव नहीं है। वह यौन संबंध बनाने का केवल प्रयास कर सकता है। उसका यह कार्य अभिनय मात्र होता है। हां, इस प्रक्रिया में वह अपने शिकार को कई तरह की हानि पहुंचा सकता है। बालक यह काम किसी की देखा-देखी के कारण करने को प्रेरित होता है। जैसा कि कानपुर वाली घटना में हम पाते हैं। इन बच्चों ने मोबाइल पर वीडियो देखा था और उससे प्रेरित हो कर बच्ची के साथ दुष्कर्म करने का प्रयास किया।
निमेश देसाई के अनुसार, ‘बलात्कारी के मनोविज्ञान’ पर बल देना अपराध को न्यायसंगत ठहराने की धारणा पैदा कर सकता है। जब हम बलात्कारी के मनोविज्ञान की व्याख्या करने का प्रयास करते हैं तो हमारी मंशा अच्छी होती है, लेकिन लोगों को लगता है कि हम इस काम को न्यायसंगत ठहरा रहे हैं और इसका अनुमोदन कर रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि बलात्कारी की मन:स्थिति की दुहाई दे कर हम उसके अपराध को हल्का करते हैं और इस कार्य को न्यायसंगत ठहराने का प्रयास कर रहे हैं।’ यह विषय बहुत जटिल है जिस पर फौरी तौर पर कोई निर्णय नहीं दिया जा सकता है, जल्दबाजी में कोई निर्णय नहीं दिया जाना चाहिए। साथ ही सबको सावधान रहने की आवश्यकता है। बलात्कारी के निर्माण में कहीं-न-कहीं पूरा समाज जिम्मेदार है, ऐसे व्यक्ति को संभालने की जिम्मेदारी भी पूरे समाज की है। इसको-उसको दोष दे कर हम बच नहीं सकते हैं, न ही इस जघन्य अपराध को पूरी तरह समाप्त कर सकते हैं। हां, इसे कम करने में हम में से प्रत्येक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। ऐसे व्यक्ति की पहचान कर उसका अनुकूलन किया जाना चाहिए। किसी ने कहा भी है एक व्यक्ति खलनायक नहीं होता है, सिस्टम खलनायक होता है। कहीं गहराई में समस्या की जड़ सिस्टम है, उसे सुधारा जाना चाहिए।