उमेश चतुर्वेदी
जून की तपती गर्मी में जब पूरा देश झुलस रहा होता है, कश्मीर की वादियों का मौसम बेहद खुशनुमा होता है…लेकिन इस साल का जून धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले कश्मीर के लिए बाकी देश की तरह खुश्की ही लेकर आया। राज्य के सियासी तापमान को बढ़ाने की वजह बनीं दो हत्याएं। पाक रमजान के महीने में जब मुकद्दस मोहब्बत और ईमान की बात की जाती है, पहले 14 जून को घाटी के तरक्कीपसंद पत्रकार शुजात बुखारी की आतंकियों ने हत्या कर दी। इसके ठीक अगले दिन घाटी निवासी भारतीय सेना के जांबाज सिपाही रहे औरंगजेब को भी उस समय मौत के घाट उतार दिया गया, जब वे मीठी ईद मनाने के लिए अपने गांव लौट रहे थे। पहले उदार और भारतीयता के हामी पत्रकार और फिर देश की सीमाओं की हिफाजत में तैनात जवान की हत्या ने श्रीनगर की ठंडी हवाओं में चाहे जितनी गर्मी भरी हो, दिल्ली के चढ़ते तापमान को और बढ़ा दिया। इस चढ़ते तापमान में तीन साल से कुछ अधिक वक्त से जारी जम्मू-कश्मीर की गठबंधन सरकार का आधार पिघला दिया। और 19 जून को सत्ताधारी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी से भारतीय जनता पार्टी ने समर्थन वापस ले लिया।
जम्मू-कश्मीर को लेकर बाहर से शांत दिखने वाली भारतीय जनता पार्टी में अंदरूनी कश्मकश कितनी थी, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि समर्थन वापसी का उसने फैसला लेकर राज्यपाल नरेंद्र नाथ वोहरा को भेज दिया। तब तक मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को पता तक नहीं चल पाया था कि उनके पैरों के नीचे से जमीन खिसक चुकी है। समर्थन वापसी की चिट्ठी मिलने के बाद राज्यपाल ने राज्य के मुख्यसचिव को फोन करके तत्काल मुख्यमंत्री से बात कराने का आदेश दिया। जब महबूबा फोन पर आर्इं तो उन्हें पता चला कि भारतीय जनता पार्टी ने उनसे अलहदा राह अख्तियार कर ली है।
सवा तीन साल पहले जब उत्तर भारत में बसंत का मौसम दस्तक दे रहा था, जम्मू-कश्मीर की राजनीति में नया अध्याय लिखा गया। कश्मीर घाटी की समस्या में पाकिस्तान की दखल की हिमायती रही पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी को भारतीय राष्ट्र की अखंडता से किसी भी कीमत पर समझौता न करने की सौगंध खाने वाली भारतीय जनता पार्टी ने समर्थन दे दिया। 87 सदस्यीय विधानसभा के चुनावों में 28 सीटों के साथ सबसे बड़ा दल बनी पीडीपी को 25 विधायकों वाली भारतीय जनता पार्टी ने जिस दिन समर्थन दिया, उसे आसानी से स्वीकार नहीं किया गया। भारतीय जनता पार्टी ने भले ही पीडीपी के साथ सरकार बना ली, लेकिन खुद उसके नेता भी इस गठबंधन की कामयाबी को लेकर आशावान नहीं थे। अब जबकि राज्य में दोनों दलों ने अलग राह अख्तियार कर ली है, रक्षा विशेषज्ञ मारूफ रजा भी मानते हैं कि कश्मीर समस्या के लिए हुर्रियत से बातचीत और पाकिस्तान को पार्टी बनाने की हिमायती रही पीडीपी के साथ भारतीय जनता पार्टी ने इतने दिनों तक निभा लिया, यही बड़ी बात है। उनका मानना है कि पीडीपी के साथ जाने और घाटी में पत्थरबाजों से नरमी बरतने की महबूबा की नीतियों के चलते भारतीय जनता पार्टी की छवि पर आंच आने लगी थी। इस बीच पत्थरबाजी से बचने के लिए जीप पर पत्थर फेंकने वाले युवक को बांधने वाले मेजर गोगोई और मेजर आदित्य के खिलाफ जिस तरह जम्मू-कश्मीर पुलिस ने मामले दर्ज किए, उससे भारतीय जनता पार्टी के अंदर भी सवाल उठने लगे थे। भारतीय जनता पार्टी असहज थी।
कुछ ऐसी ही राय अवकाश प्राप्त कर्नल विपिन पाठक की भी है। वे इसमें एक और तथ्य को जोड़ते हैं। उनका कहना है कि पत्थरबाजों को माफी, मेजर आदित्य और मेजर गोगोई के खिलाफ मामले दर्ज होने के अलावा जम्मू और लद्दाख क्षेत्र के विकास के मुद्दे पर पीडीपी और भारतीय जनता पार्टी के रुख अलग-अलग थे। जम्मू और लद्दाख इलाके के विकास को लेकर महबूबा सरकार का रुख ठंडा था। उनका मानना है कि इस वजह से दोनों पार्टियों में खटास बढ़ती जा रही थी। उनके मुताबिक कश्मीर में ऐसी अफवाह थी कि अपनी उदार छवि को बरकरार रखने के लिए महबूबा मुफ्ती कभी-भी इस्तीफा दे सकती हैं। लिहाजा भारतीय जनता पार्टी ने तेजी दिखाते हुए समर्थन वापस ले लिया।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 का खात्मा और कश्मीर घाटी को भारत का अविभाज्य अंग बनाए रखना भारतीय जनता पार्टी के अहम मुद्दे रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी के पूर्ववर्ती दल भारतीय जनसंघ के संस्थापक डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने एक विधान, एक निशान और एक प्रधान की मांग को लेकर कश्मीर में धरना देने की कोशिश की, जिसमें उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और 23 जून 1952 को गिरफ्तारी में ही उनका निधन हो गया। भारतीय जनता पार्टी का नारा रहा है, जहां डॉक्टर मुखर्जी ने दिया बलिदान, वह कश्मीर हमारा है। ऐसा माना जा रहा है कि भारतीय जनता पार्टी का कोर वोटर राज्य में पीडीपी सरकार के लचीले रवैये से आहत महसूस कर रहा था। यह भी माना जा रहा है कि 2019 के आम चुनावों में इसे लेकर भारतीय जनता पार्टी से सवाल पूछे जाते, इसलिए उसने समर्थन वापस लेकर अपनी राष्ट्रीय छवि बनाए और बचाए रखने की कोशिश की है। मारूफ रजा और कर्नल विपिन पाठक, दोनों ही इस राय से सहमत हैं। दोनों का मानना है कि अगर भारतीय जनता पार्टी अलग नहीं होती तो अगले चुनाव में उससे इसे लेकर सवाल पूछे जाते, जिनका जवाब देना उसके लिए आसान नहीं होता।
रमजान के महीने में संघर्ष विराम की मांग भले ही मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने की थी, लेकिन उससे भारतीय जनता पार्टी सहमत नहीं थी। इसके बावजूद केंद्रीय गृहमंत्रालय ने इसे मंजूरी दी। इसका असर यह हुआ कि पत्थरबाजी की घटनाएं राज्य में बढ़ीं। पत्थरबाजी में सेना के आंकड़ों के मुताबिक करीब साढ़े तीन हजार जवान घायल हुए हैं। हालांकि संयुक्तराष्ट्र मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट में घाटी में सुरक्षा बलों पर आरोप लगाया गया है कि उन्होंने आम लोगों के मानवाधिकार का ध्यान नहीं रखा। मारूफ रजा मानते हैं कि संयुक्तराष्ट्र मानवाधिकार आयोग ने अपनी रिपोर्ट बनाते वक्त सिर्फ पैलट गन से घायल लोगों का ही ध्यान रखा, सुरक्षा बलों के जवानों के मानवाधिकार पर उसका ध्यान नहीं गया। मारूफ रजा कहते हैं कि कश्मीर पर आतंकियों और पाकिस्तान को लेकर पीडीपी की ढीली नीति का असर है कि उसके प्रभाव वाले दक्षिण कश्मीर से वहाबी विचारधारा वाला आतंकियों का बोलबाला और तादाद बढ़ी है। इसलिए भी भारतीय जनता पार्टी के सामने असमंजस की स्थिति थी और उसने इससे बाहर आना उचित समझा और पीडीपी से समर्थन वापस ले लिया।
जम्मू-कश्मीर में राज्यपाल शासन लग चुका है। ऐसी आम धारणा है कि राज्यपाल शासन का मतलब सैनिक शासन होता है। माना जा रहा है कि ऐसा करके भारतीय जनता पार्टी इस बहाने आतंकियों और देश विरोधी ताकतों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करेगी और मुख्यत: कमान सेना के हाथ रहेगी। लेकिन मारूफ रजा का कहना है कि राज्यपाल का शासन भी नागरिक शासन ही होता है, जिसमें अधिकारियों की भूमिका भी रहती है। मारूफ रजा का कहना है कि सुरक्षा बल पहले जिस तरह कार्रवाई कर रहे थे, वैसे ही करते रहेंगे। हां, राज्यपाल शासन होने से उसे यह राहत जरूर रहेगी कि उसके किसी मेजर गोगोई या मेजर आदित्य के खिलाफ राज्य पुलिस उकसावे की कार्रवाई नहीं करेगी। वहीं कर्नल विपिन पाठक का मानना है कि राज्यपाल शासन में सुरक्षा बल और नागरिक प्रशासन मिलकर आतंकियों की कमर तोड़ने में कामयाब होंगे। दोनों का कहना है कि राज्य में शांति के लिए जरूरी है कि आतंकियों को अलग-थलग किया जाए।
यह कहा जाता है कि चुनी हुई सरकारें विकास करती हैं और शांति लाती हैं। लेकिन जम्मू-कश्मीर के मामले में मारूफ रजा इससे सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि पिछले दो दशक में कश्मीर में चुनी गई सरकारों ने राज्य का बेड़ा ही गर्क किया है। उनका कहना है कि चूंकि राज्यपाल शासन को राजनीतिक दलों की सरकार की तरह वोटर का मुंह नहीं देखना होता, इसलिए वह सिर्फ और सिर्फ संविधान के मुताबिक काम करता है। उनका कहना है कि राज्यपाल शासन में ही जम्मू-कश्मीर में ज्यादा बढ़िया हालात रहे हैं, बनिस्बत चुनी हुई सरकारों के। राज्यपाल शासन लगने के बाद जिस तरह पत्थरबाजी की घटनाओं पर खुद-ब-खुद लगाम लगी है। कर्नल विपिन पाठक को लगता है कि राज्य की क्षेत्रीय और ताकतवर पार्टियों नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी ने लोगों का भरोसा खो दिया है। लेकिन लोकतंत्र तो चाहिए ही, इसलिए विपिन पाठक का मानना है कि राज्य की राजनीतिक ताकतों को युवा उन्मुखी राजनीतिक दल के गठन की तरफ ध्यान देना चाहिए। उन अधिसंख्य युवाओं को खुद से जोड़ने की कोशिश करनी चाहिए, जिनका भरोसा विकास में है। जो अपना और राज्य दोनों का विकास चाहते हैं। बहरहाल, दोनों जानकारों को लगता है कि मौजूदा हालात में केंद्र की भारतीय जनता पार्टी की सरकार आतंकियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करके एक तरफ पाकिस्तान को चेतावनी देने की कोशिश करेगी कि देश तोड़ने के उसके मंसूबे कभी पूरे नहीं होंगे, वहीं वह अपने कोर वोटरों को यह संदेश देने की भी कोशिश करेगी कि वह अपने लक्ष्य से डिगी नहीं है।